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अजीव अधिकार
[ १३ ( अनुष्टुभ् ) "कालाभावे न भावानां परिणामस्त रात् ।
न द्रव्यं नापि पर्याय:सर्वाभाव: प्रसज्यते ॥" तथा हि--
( अनुष्टुम् ) वर्तनाहेतुरेषः स्यात् कुम्भकृच्चक्रमेव तत् ।
पंचानामस्तिकायाना नान्यथा वर्तना भवेत् ॥४८॥ - - . -- ----- .. -
गाथार्थ--'"लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जो एक-एक कालाण रत्नों की राशि के समान पृथक् पृथक् रूप से स्थित हैं, वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं ।
मार्गप्रकाश ग्रन्थ में भी कहा है--
इलोकार्थ---"कालद्रव्य के अभाव में पदार्थों का परिणामन नहीं हो सकता है और परिगमन के बिना न तो द्रव्य ही रह सकता है और न पर्याय ही रह सकती है, इसप्रकार से तो सभी के अभाव का प्रसंग आ जाता है।" अर्थात् काल द्रव्य के अस्तित्व को माने बिना किसी भी वस्तु का परिणमन सम्भव नहीं होगा, पून: परिणमन के बिना द्रव्य और पर्याय का अस्तित्व भी समाप्त हो जावेगा तब तो सर्व शून्य हो जाने से शून्यवाद का सिद्धान्त हो पुष्ट हो जावेगा यह अभिप्राय है ।
उसीप्रकार से [ टीकाकार श्री मुनिराज काल के अस्तित्व को पुष्ट करते हुए दो श्लोक कहते हैं-]
(४८) श्लोकार्थ--यह काल द्रव्य कुम्भकार के चक्र के समान पांचों असितकायों में वर्तना का हेतु है। इसके बिना वर्तना नहीं हो सकती है।
भावार्थ-यह काल द्रव्य मभी द्रव्यों को वर्तना में-परिणमन में हेतु है । यदि यह द्रव्य न हो तो किसी भी द्रव्य में परिणमन रूप परिवर्तन नहीं हो सकता है।
१. दृश्यसंग्रह गाथा २२१