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नियमसार
तथा हि
( स्वागता) शुद्धनिश्चयनयेन विमुक्ती संसृतावपि च नास्ति विशेषः । एवमेव खलु तत्त्वविचारे
शुद्धतत्वरसिकाः प्रवदन्ति ॥७३॥ - - -
- - - - - के बाद सीढ़ी की आवश्यकताम्ग अवलंबन स्वयं छूट जाता है। उसी प्रकार से नय प्रमाणातीत निर्विकल्प ध्यान अवस्था को प्राप्त करने के लिये ही यह व्यवहारनय अवलंबनस्वरूप है किंतु उस निर्विकल्प अवस्था में पहुंचने पर वह स्वयं छूट जाता है ऐसा अभिप्राय है। यहां पर कलशकाव्य में जो 'हंत शब्द है, श्रीशुभचंद्राचार्य ने परमाध्यात्मतरंगिणी नामकी इन कलशों की टीका में उस 'हंत' पद का अर्थ 'बाक्यालंकाररूप' ही किया है।
उसीप्रकार--[ टीकाकार श्रीमुनिराज 'तत्व के विचार के अवनर में ही शुद्धनय के कथन को अपेक्षित रखना चाहिए' ऐसा कहते हुए श्लोक कहते हैं
(७३) श्लोकार्थ-द्ध निश्चयनय से मुक्ति में और संसार में भी अंतर नहीं है इस प्रकार ही निश्चित रूप से तत्त्व के विचार के समय में शुद्धतत्त्व के रसिकजन कहते हैं।
भावार्थ- यहां उन लोगों को सोचना चाहिए जो कहते हैं कि द्रव्य कालिक शुद्ध हैं पर्याय ही अशुद्ध हैं । जिस नय से द्रव्य अकालिक शुद्ध है अर्थात् ।। सिद्धों के सदृश है उसी नय से गुण और पर्याय भी नैकालिक शुद्ध हैं क्योंकि गुण पर्यायें कुछ आधेयरूप हों और द्रव्य आधारभूत हों ऐसा तो है नहीं प्रत्युत गुण और पर्यायों के समुदाय का नाम ही द्रव्य है । इसलिये जब व्यक्तरूप में सिद्ध अवस्था में द्रव्य शुद्ध हो जाता है तब उस द्रव्य के सभी गुण और सभी पर्यायें शुद्ध हो जाती हैं । चूंकि गुणपर्यायों की शुद्धता ही द्रव्य की शुद्धता है ।