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व्यवहारचारित्र अधिकार
[ १७१ शानोपकरणमिति यावत्, शौचोपकरणं च कायविशुद्धिहेतुः कमण्डलुः, संयमोपकरणहेतुः पिच्छः । एतेषां ग्रहणविसर्गयोः समयसमुद्भवप्रयत्नपरिणामविशुद्धिरेव हि आदाननिक्षेपणसमितिरिति निविष्टयति ।
------ - 1. अर्थात् ये सब पर्यायवाची नाम हैं। इन उत्सर्ग और अगवाद में कथंचित्-परम्पर। सापेक्ष भाव को रखने वाले साधु के ही चारित्र की रक्षा होती है।"
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श्री अक्टकदेव ने भी कहा है
"संयम के दो भेद हैं-उपेक्षासंयम और अपहुनसंयम । देश और काल के विधान को जानने वाले, स्याभाविकरूप से शरीर विरक्त और तीन गुप्तियों में सहित साधुके राग और ए रूप मनोवृत्ति का न होना उपंक्षासंयम है। अपहतसंयम के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा तीन भेद हैं । प्रामुक आहार और प्रामुक वमति मात्र बाह्य माधन जिनके पास हैं, तथा जो ज्ञान और चारित्रम्प क्रियाओं में स्वाधीनता से नत्पर हैं से माधु बाह्य जंतुओं के आने पर उनसे अपने को बचाकर मयम पालते हैं सो उत्कृष्ट अपहतसंयम है । मृदु उपकरण से जंतुओं को हटाकर संयम पालना मध्यम है एवं अन्य उपकरणांसे हटाकर जीवरक्षा करना जघन्य अपहृतसंयम हलाता है । इस अपहृतसंयम के लिये आठ प्रकार की शुद्धियों का कथन है । भावशुद्धि, लयशुद्धि, विनयशद्धि, ईयापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और साकशुद्धि' ।" इनका विशेष वर्णन तत्वार्थवार्तिक, मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि थों से जान लेना चाहिये ।
. यहां अभिप्राय इतना ही है कि उपेक्षासंयमी मुनि ध्यान में लीन शुद्धोपयोगी और वे ही वीतराग चारित्रधारी हैं। तथा अपहृतसंयमी मुनि आगमानुकूल पति करते हुये शुभोपयोगी हैं और वे ही सराग चारित्र का पालन करने वाले हैं ।
1. तत्वार्थवार्तिक पृ० ५६६,