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नियमसार नपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा । रागः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः । असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामो द्वषः । इत्यायशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति ।
( वसंततिलका) गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थचितासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य । बाह्मान्तरंगपरिषंगविजितस्य
श्रीमज्जिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य ।।१।।
- - - - विशेषार्थ-गुप्नि का क्षण है. मोगागिटाहो गुप्ति:" ख्याति, पुजा आदि की अपेक्षा से रहित सम्यक्प्रकार में मन, वचन और काय के योगों का निग्रह करना गुप्ति है। यद्यपि ये गुप्तियां निवनिरूप हैं फिर भी आचार्यदेव स्वयं आगे निश्चयगुप्नि को गाथा ६६, ७० में कहेंगे । इसलिये यहां पर व्यवहारनय से गुप्ति का वर्णन करने में इस गुप्ति में अशुभभावों को निर्यात ही विवक्षित है क्योंकि गाथा में "असुहभावाण" पद स्पष्ट कह रहा है कि अशुभभावों का परिहार मनोगुप्ति है । टीकाकार ने भी “इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव" वाक्य से जोर देकर कहा है कि इत्यादि अशुभपरिणामों के कारणों का परिहार ही मनोगुप्ति है, अतः यहां पर व्यवहारगुप्ति में 'पुण्यरूप शुभभावों का परिहार अर्थ नहीं लेना चाहिए।
(११) श्लोकार्थ-परमागम के अर्थ के चितवन में जिनका मन लगा हुआ है जो विजितेन्द्रिय हैं, जो बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं और जो श्रीमान् जिनेंद्र भगवान् के चरणों को स्मरण करने में दत्तचित्त हैं ऐसे साधु के सदा मनोगुप्ति होती है ।।९।।
भावार्थ-निर्ग्रन्थ जितेन्द्रिय मनि जब तत्त्व चिता में तत्पर होते हैं और जिनेंद्र भगवान् की भक्ति में रत होते हैं तब उनके शुभ परिणामों से मन का शुभ व्यापार भी मनोगुप्ति कहलाता है ।
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१. तत्त्वार्थसूत्र, सू. ४, न. ९।