________________
व्यवहारचारित्र अधिकार
[ १७६ बंधणछेदणमारणप्राकुचण लह पसारणादीया । कायकिरियारिणयती, रिणहिट्ठा कायगुत्ति त्ति ॥६॥ बंधनछेवनमारणाकुञ्चनानि तथा प्रसारणादीनि । कायक्रियानिवृत्तिः निद्दिष्टा कायगुप्तिरिति ॥६॥
पर जीव का बंधन, व छदन मारना आदि । निजनन को भी मिकोड़ना फेलावना आदि ।। इन काय क्रियाओं का करने अभाव जो ।
उन साधु को ही निश्चित यह काय गृप्ति हो ।।६।। अत्र कायगुप्तिस्वरूपमुक्तम् । कस्यापि नरस्य तस्यान्तरंगनिमित्तं कर्म, बंधनस्य बहिरंगहेतुः कस्यापि कायव्यापारः । छेदनस्याप्यन्तरंगकारणं कर्मोदयः, बहिरंगकारणं प्रमत्तस्य कायक्रिया। मारणस्याप्यन्तरंगहेतुरांतर्यक्षयः, बहिरंगकारणं कस्यापि
- - जितने भी बचन भव परंपरा को बढ़ाने वाले हैं, और अप्रशस्त हैं उन सबको छोड़कर शुद्ध चैतन्य आत्मा का ध्यान करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
गाथा ६८
अन्वयार्थ--[बंधन छेदन मारणा कूचनानि] बंधन, छेदन, मारण, संकोचन [तथा प्रसारणादीनि] उमीप्रकार फैलाना आदि [काय क्रिया निवृत्तिः] कायक्रियाओं का न होना [कायगुप्तिरिति निर्दिष्टा] वह कायगुप्ति इमप्रकार कही गई है ।
टोका—यहां काय गुप्ति के स्वरूप का कथन है ।
किसी भी मनुष्य को बंधन में उसका अंतरंग निमित्त कर्म का उदय है और उस बंधन में बहिरंगकारण किसी के काय का व्यापार है। छेदन में भी अंतरंग कारण कर्म का उदय है, बहिरंग कारण प्रमत्तजीव की कायक्रिया है। मारण में भी अंतरंग हेतु अंतरंग के आयुकर्म का क्षय होना है और बहिरंग कारण किसी के भी काय की विकृति है । आकुचन और प्रसारण आदि में कारण संकोच-विस्तारादि निमित्तक समुद्धात है । इन कायक्रियाओं का अभाव होना कायगुप्ति है ।