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व्यबहारचारित्र अधिकार
[ १७७ कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइप्रसुहभावाणं । । परिहारो मणुगुत्तो', ववहारणयेण परिकहियं ॥६६॥ कालष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम ।। परिहारी मनोगुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता ।।६६॥
कालुप्य मोह संज्ञा पाहार भयादी । बहुविध के भाव जो हैं अशुभ राग द्विषादी ।। इनका कर परिहार मनोगुप्ति वे धर ।
व्यवहार नय से गुप्ति इसविध मुनि उचरं ॥६६॥ __ व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । क्रोधमानमायालोभाभिधानश्चतुभिः रूपायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्पम् । मोहो दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा । संज्ञा प्राहारभयमथु
...- . - - - -- - - - - || कोई एक अद्भुत है ।।१०।।
अर्थात् ये समितियां माक्षरूपी मवोत्तम फल को देने वाली हैं जो मनि इन समितिरूप से प्रवृत्ति करते हैं वे गीन ही अविनश्वर फल को प्राप्त कर लेते हैं।
गाथा ६६ ___ अन्वयार्थ-[ कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम् ] कलुषता, मोह, । संजा, राग, द्वेष आदि अशुभभावों के [ परिहारः ] परिहार को [ व्यवहारनयेन ] व्यवहारनय से [मनोगुप्तिः कथिता] मनोगुप्ति कहा है ।
टोका--यह व्यवहार मनोगुप्ति के स्वरूप का कथन है। . क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों से क्षुभित चिन को कलुषता कहते हैं। दर्शनमोह और चारित्रमोह के भेद से मोह दो प्रकार का है । आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह के भेद से संज्ञा के चार भेद हैं । प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद में सग दो प्रकार का है । असह्यजनों में अथवा असह्यपदार्थों के समूह में वर का परिणाम वह द्वेष है | इत्यादि अशुभ परिणाम के कारणों का परिहार ही व्यवहारनय के विभिप्राय से मनोगुप्ति कहलाती है।
१. मणगुत्ती (वा) पाठालर