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नियमसार
( मालिनी) समितिषु समितीयं राजते सोत्तमानां परमजिनमुनीनां संहतो क्षतिमंत्री । त्वमपि कुरु मनःपकेरहे भव्य नित्यं
भवसि हि परमश्रीकामिनीकांतकांतः ॥७॥ पासुगभूमिपदेसे, गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चाराविच्चागो, पइट्ठा'समिदी हवे तस्स ॥६५॥
प्रासुकभूमिप्रदेशे गूढे रहिते परोपरोधेन । उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठासमितिर्भवेत्तस्य ॥६५।।
निर्जतु भूमि स्थल एकांत गुढ़ हो । नहिं रोक टोक पर का हरितादि शून्य हो ।। मलमूत्र प्रादि का जो वह त्याग करे हैं। दे ही मुनि प्रतिष्ठा ममिति को धरे हैं ।।६५1!
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__ अब टीकाकार मुनिराज इस ममिति के फल को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं
(८७) श्लोकार्थ-उत्तम परम जिन जिनमुनियों की ममितियों में यह आदाननिक्षेपण समिति शोभित होती है जो कि प्राणियों के समुदाय में क्षमा' और मैत्री स्वरूप है। हे भव्य ! तुम भी अपने मनरूपी पंकज में नित्य ही इसको धारो, निश्चित ही परमश्री-मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्री के प्रियकांत हो जावोगे ||८७।।
गाथा ६५ अन्वयार्थ-[परोपरोधेन रहिते] पर के रोक टोक से रहित [गूढे प्रासुकप्रदेशे] गूढ-मर्यादित-एकांत, जीवजंतु रहित प्रासुक स्थान में [उच्चारावित्यागः] जो मल-मूत्र आदि शरीर के मल का त्याग करते हैं, [तस्य प्रतिष्ठासमितिः भवेत् ] उनके प्रतिष्ठापनसमिति होती है ।
१. पट्ट (क) पाठान्तर