________________
१७० ]
नियमसार अत्रादाननिक्षेपणसमितिस्वरूपमुक्तम् । अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिना न पुस्तककमण्डलु - प्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अत एव बाह्योपकरण निर्मुक्ताः । अभ्यन्तरोपकरणं निजपरमतत्त्वप्रकाशदक्षं निरुपाधिस्वरूपसहजज्ञानमन्तरेण न किमप्युपादेयमस्ति । अपहृतसंयमधराणां परमागमार्थस्य पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञानकारणं पुस्तकं - -..- - - - -- - - -..-- - - - - - - - --
टीका-यहां आदाननिक्षेपण समिति के स्वरूप को कहा है।
अपहृतसंयमी मुनियों के संयम, ज्ञान आदि के उपकरण ग्रहण करते और रखते समय होने वाली ममिति के प्रकार का यह कथन है, क्योंकि उपेक्षासंयमी मुनियों के पुस्तक कमंडलु आदि नहीं हैं, इसलिये बे परम जिनमुनि एकांत से मर्वथा निस्पृह होते हैं अनाव वे वाह्य उपकरण से रहित हैं । अभ्यंतर उपकरण निजपरमतन्त्र के प्रकाशन करने में कुशल गा जो उपाधिरहित लक्षणवाला सहज ज्ञान है उसके बिना उन मुनियों को कुछ भी उपादेय नहीं है ।
अपहृत संयमधारी मुनियों को परमागम के अर्थ का जो पुनः पुनः अभ्यासरूप जो प्रत्यभिज्ञान है उसमें कारणभूत पुस्तक ज्ञान का उपकरण है, शौच का उपकरण शरीर की विशुद्धि में हेतुभून कमंडलु है और संयम के उपकरण हेतुक पिच्छी है । इनके ग्रहण करने और रखने के समय उत्पन्न हुये प्रयत्न से परिणाम की विशुद्धि ही निश्चितरूपसे आदाननिक्षेपण समिति है इसप्रकार से कहा गया है ।
विशेषार्थ--संयम के दो भेद हैं, उपेक्षासंयम और अपहृतमयम। "'अपनी शुद्ध आत्मा से भिन्न संपूर्ण बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह का परित्याग कर देना 'उत्सर्ग मार्ग है। इसे ही निश्चयनयं, सर्वपरित्याग, परमोपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग कहते हैं अर्थात् ये सब पर्यायवाची नाम हैं। जो मुनि इस निश्चयरत्नत्रय में ठहरने को असमर्थ हैं वे शुद्धात्मा के सहकारीभूत कुछ भी प्रामुक आहार ज्ञानोपकरण आदि ग्रहण करते हैं उनका यह अपवाद चारित्र कहलाता है इसे ही व्यवहारनय एकदेशपरित्याग, अपहृत्तसंयम, सरागचारित्र और शुभोपयोग कहते हैं
१. प्रवचनसार, तात्पर्य वृत्ति गा० २३० ।