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नियमसार
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(मालिनी) "यमनियमनितान्तः शांतबाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकंपी। विहितहितमिताशी फ्लेशजालं समूलं
वहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ॥" तथा हि
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गाथार्थ--"जिसका आत्मा भोजन की इच्छा से रहित है वही तप है और उस तप को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले श्रमणों के अन्न आदि की भिक्षाएषणा दोष मे रहित होती है इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं'।'
भावार्थ-स्वयं अनशन स्वभाववाला होने में और एपणा दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करने से युक्ताहार लेने वाले मुनि साक्षात् अनाहारी ही हैं। जो साधु समस्त पुद्गलाहार से शून्य आत्मा के स्वभाव को जानने वाले हैं, समस्त भोजन की तृष्णा से रहित हैं। ऐसे साधु अनशन स्वभाव वाले आत्मा को सदा भावना करते रहते हैं और उस आत्मा की सिद्धि के लिये शास्त्र कथिन छयालीस दोष, बत्तीस अंतराय टाल कर आहार ग्रहण करते हैं, वे आहार करते हुए भी अनाहारी हैं, यहां ऐसा अभिप्राय है।
उसीप्रकार श्रीगुणभद्रस्वामी ने भी कहा है
श्लोकार्थ-"जो अतिशयरूप से यम और नियम मे सहित हैं, बहिरंग और अंतरंग से जिनकी आत्मा शांत है, जो समावि में परिणमन कर रहे हैं, सभी जीवों पर अनुकम्पा धारण करने वाले हैं, जो शास्त्र में कथित, हित और मित आहार को ग्रहण करने वाले हैं, जिन्होंने निद्रा को जीत लिया है और अध्यात्म के सार को निश्चित कर लिया है ऐसे परमसाधु क्लेश समूह को समूल-चूल जला देते हैं ।
१. प्रवचनसार गाया २२७ ।