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व्यवहार चारित्र अधिकार
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स्वस्थानपादक्षालनाचनप्रणाम योगशुद्धिभिक्षाशुद्धिनामधेयनंवविधपुष्यैः प्रतिपत्त कृत्वा श्रद्धाशक्त्यलुब्धताभक्तिज्ञानक्याक्षमाऽभिधानसप्तगुणसमाहितेन शुद्ध ेन योग्याचारेणोपासकेन दत्तं भक्त भुजानः तिष्ठति यः परमतपोधनः तस्यैषणासमितिर्भवति । इति व्यवहारसमितिक्रमः । अथ निश्चयतो जीवस्याशनं नास्ति परमार्थतः, षट्कारमशनं व्यवहारतः संसारिणामेव भवति ।
तथा चोक्त
“पोकम्मक*महारो लेप्पाहारो य कवलमाहारो 1 उज्ज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहो यो ।" अशुद्धजीवानां विभावधर्मं प्रति व्यवहारनयस्योदाहरणमिदम् । इदानीं निश्चयस्योदाहृतिरुच्यते । तद्यथा-
"जस्स प्रणेसणमप्पा तं पि तवो तपडच्छ्रगा समणा । अगं भिक्खमरणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥ "
आदर करके अद्धा शक्ति अधा, भक्ति, विवेक, दया और क्षमा इन नाम वाले सात गुणों से महित, शुद्ध और योग्य आचार के पालन करने वाले श्रावक के द्वारा दिये गये आहार को ग्रहण करते हुये जो परम तपोधन रहते हैं, उनके एषणासमिति होती है । इस प्रकार से यह व्यवहारसमिति का क्रम है । और निश्चयनय से जीव के वास्तव में अशन ही नहीं है, क्योंकि छह प्रकार का भोजन व्यवहारनयसे भंसारी जीवों को ही होता है ।
समयसार में कहा भी है ( ? ) -
गाथार्थ — "नोकर्म आहार, कर्म आहार, लेप आहार, कवल आहार, ओज आहार और मानसिक आहार, ऐसे क्रम से आहार के छह भेद जानना चाहिये" ।
aarti के विभावधर्म के प्रति व्यवहारनय का यह उदाहरण है । अब निश्वयनय का उदाहरण देते हैं। वो इस प्रकार है
१. यह गाथा समयसार में नहीं है किंतु प्रवचनसार में प्रथम अधिकार की २० वीं गाथा की तात्पर्य वृत्ति टीका में अवतरणरूप से है ।
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