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तथा च-
व्यवहार चारित्र अधिकार
( मालिनी )
"समधिगतसमस्ताः
सर्वसावद्यद्दूराः शांतसर्वप्रचाराः ।
स्वहित निहितचित्ताः स्वपरसफलजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः raft न विमुक्त भजनं ते विमुक्ताः ॥ "
( अनुष्टुभ् ) परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिज्जेत्यैश्च किं पुनः ॥६५॥
मनीषिणाम् ।
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"" सम्यक् प्रकार से सभी वस्तु के स्वरूप को जिन्होंने जान लिया है, जो संपूर्ण पापक्रियाओं से दूर हैं, जिन्होंने अपने हित में अपने मन को लगा रखा है, जिनके सभी प्रचार कार्य शांत हो चुके हैं, जो स्व और पर के लिये फलमहित वचन बोलने वाले हैं, और जो सभी संकल्पों से रहित हो चुके हैं। वे विमुक्त पुरुष निग्रंथ साधु इस लोक में मुक्ति के पात्र कैसे नहीं होंगे ? अर्थात् ऐसे साधुजन मुक्ति के पात्र अवश्य होंगे ।"
और उसी प्रकार - [ टीकाकार मुनिराज भाषासमिति में निरत मुनियों की विशेषता को प्रगट करते हुये श्लोक कहते हैं ]
( ८५ ) श्लोकार्थ - - परब्रह्मरूप आत्मा के अनुष्ठान में निरत मनीषी बुद्धिमान साधुओं को अंतरंग के जल्प से भी बम होवो । पुनः बहिर्जरूप की तो बात ही क्या है ?
भावार्थ - अपनी आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करने के अनुष्ठान में संलग्न हुये साधु जब अंतर्जल्प-मन के विकल्प जालों को भी छोड़ देते हैं तो उनके बहिर्जरूप बाहर मैं लोगों से बोलना चालना आदि पहले ही छूट चुका है । अर्थात् बाह्यजनों से बोलना आदि व्यापार बंद करके अंतरंग के मनके व्यापार को भी रोकना चाहिये, यह अभिप्राय है ।
१. आत्मानुशासन, श्लोक २२६