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শ্রবণা নয়িক
[ १६६ ( शालिनी) भुक्त्वा भक्त भक्तहस्ताग्रदत्त घ्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम् । तपस्वा चैवं सत्तपः सत्तपस्वी
प्राप्नोतीद्धां मुक्तिवारांगनां सः ॥८६।। पोत्थइकमंडलाइं, गहरविसग्गेलु पयतपरिणामो। प्रादावरणरिणक्खेवणसमिदी होदि ति रिएट्ठिा ॥६४॥ पुस्तककमण्डलाविग्रहणविसर्गयोः प्रयत्नपरिणामः आदाननिक्षेपणसमितिर्भवतीति निर्दिष्टा ॥४॥
पुस्तक कमंडलू वा संस्नर जो वस्नु हो । उनको उठाने घरने में यत्त भाव हों ।। ममिती सदा उन्हें है पादाननिक्षेपण । जो सावधान मुनि हैं उनको मदा नमन १६४।।
- - . -. ..- - - उसीप्रकार से-[टीकाकार श्री मुनिराज एपणाममिति के पालन करने वाले महामुनि के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुये श्लोक वाहते हैं-]
(८६) श्लोकार्थ-भक्त के हस्तान से दिये हा भुक्त भोजन को खाकर पूर्ण । पान के प्रकाश स्वरूप आत्मा का ध्यान करके और इसीप्रकार से सम्यक् तपश्चरण को - तप करके वह सतपस्वी देदीप्यमान मुक्तिरूपी सुन्दर स्त्री को प्राप्त कर लेता है । । अर्थात् जो महाव्रती साधु विधिवत् श्रावक के द्वारा शुद्ध आहार ग्रहण करके अपनी
आत्मा का ध्यान करता है, वही मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी है ।
गाथा ६४ अन्वयार्थ-[पुस्तककमंडलादिग्रहणविसर्गयोः] पुस्तक, कमंडलु आदि के ग्रहण करने और रखने में [प्रयत्लपरिणामः] जो प्रयत्नरूप परिणाम है, [आदाननिक्षेपणसमितिः इति निर्दिष्टा भवति ] वह आदाननिक्षेपण समिति है इसप्रकार कहा गया है।