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व्यवहारचारित्र अधिकार
[ १६३ मुनिप कुरु ततस्त्वं त्वन्मनोगेहमध्ये ह्यपवरकममुध्याश्चारुयोषित्सुमुक्तः ॥ ३ ॥
(आर्या) निश्चयरूपां समिति सूते यदि मुक्तिभाग्भवेन्मोक्षः ।
बत न च लभतेऽपायात् संसारमार्णवे भ्रमति ॥ ८४ !! पेसुण्णहासकक्कस, पर्राणदप्पप्पसंसियं वयणं । परिचत्ता सपरहिदं, भासासमिदी वदंतस्स ॥ ६२ ॥
पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् ।। परित्यक्त्वा स्वपरहितं भाषासमितिर्वदतः ।। ६२ ।।
पैशुन्य हास्य कर्कश भाषा अतो कठिन । निज की प्रशंसा पर की निंदा के भी वचन 11 जो न्याग इनका करके निजपर हितकरी ।
बोले वचन उन्हीं के भाषामिनि खरी ।। ६२ ।। इसलिये हे मुनिएने ! तुम अपने मनरूपी घर के भीतर इस सुन्दर मुक्तिरूपी स्त्री के लिए अपवरक कमरा (नित्रामागृह) बनाओ । अर्थान समिति से रहित जीवों को ही इस संसार में जन्म लेना पड़ता है और जो समिति का पालन करते हैं समझिये उन्होंने अपने विशाल मनम्पी महल में मुक्ति सुन्दरी के रहने के लिए एक कमरा बनवा लिया है। मतलब वे जल्दी ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं ।।।३।।
(८४) श्लोकार्थ--यदि यह जीव निश्चयरूप समिति को प्रकट करता है तो वह मुक्ति को प्राप्त करने वाला हो जाता है। अरे रे ! खेद है, उस समिति के अपाय-अभाव से वह मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकता है। प्रत्युत संसाररूपी महासमुन्द्र में भ्रमण करता है। अर्थात् निश्चयममिति के बिना मोक्ष नहीं है। और व्यवहार समिति के बिना निश्चयममिति नहीं हो सकती है ऐसा समझ कर व्यवहार चारित्र को धारण कर निश्चय चारित्र को प्राप्त करने का उद्यम करना चाहिए ।1८८।।
__ गाथा ६२ अन्वयार्थ-[पशून्य हास्यकर्कश पर्रानंदात्मप्रशंसितं वचनं] पैशून्य, हास्य, कर्कश, पनिंदा और अपनी प्रशंसारूप वचन को [ परित्यक्त्वा ] छोड़ करके [स्वपर