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नियमसार
( हरिणी ) भवभीरुत्वाद्भव्यः परिग्रहविग्रहं निरुपमसुखावासप्राप्यं करोतु निजात्मनि । स्थितिर्माविचलां शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसताभिवम् ||८०|| पासुगमग्गेण दिवा, अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि । गच्छ पुरदो समणो, इरियासमिदी हवे तस्स ॥ ६१ ॥ प्राकमार्गेर दिवा अवलोकयन् युगप्रमाणं खलु ।
गच्छति पुरतः श्रमणः ईर्यासमितिर्भवेत्तस्य ॥ ६१ ॥ दिन में जो चलते प्रासुकनिर्जतु मार्ग से । आगे ही देख करके चलकर प्रमाण ने ॥ निजकार्य वग से करते भू पर सदा गमन । ईसिमित है उनके वे भाव से श्रमण ।।६१ ||
त्यजतु
( ८० ) श्लोकार्थ - भव्यजीव भवभीरु होने से परिग्रह के विशेष आग्रह को या ग्रहण को छोड़ो और निरुपम सुग्य के आवास ( मोक्षपद ) की प्राप्ति के लिए अपनी आत्मा में जगत के जीवों को दुर्लभ, सुखमयी ऐसी अविचल स्थिति को करो । और यह निजात्मा में स्थिति करना सत्पुरुष - माधुओं के लिए कोई महान् आश्चर्य नहीं है किन्तु असत्पुरुष - असाधुजनों के लिए ही यह आश्चर्य की बात है ||८०||
भावार्थ - यहां परिग्रह के त्याग की प्रेरणा दी है और मोक्ष पद की प्राप्ति के लिये आत्मा में अविचल स्थिर होने का आदेश दिया है तथा यह भी बतलाया है
कि संपूर्ण परिग्रह को छोड़कर शुद्ध आत्मा में स्थिर होना यह जगत के जीवों के लिए दुर्लभ है । इसके प्राप्त करने में महापुरुषों को तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है अर्थात् वे सहज ही प्राप्त कर सकते हैं किन्तु अराज्जन पुरुषों को आश्चर्यकारी अवश्य है। अर्थात् वे प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।
गाथा ६१
अन्वयार्थ – [ प्राकमार्गेण दिवा ] जीवजंतु रहित प्रासुकमार्ग में दिवस में [ खलु युगप्रमाणं पुरतः अवलोकयन् ] निश्चित ही चार हाथ प्रमाण आगे देखकर