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व्यमहारत्रापित्र धिकार
[ १५६ इह हि पंचमवतस्वरूपमुक्तम् । सकलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिजकारणपरमात्मस्वरूपावस्थितानां परमसंयमिनां परमजिनयोगीश्वराणां सदैव निश्चयच्यवहारात्मकचारुचारित्रभरं वहतां, बाहयाभ्यन्तरचतुविशतिपरिग्रहपरित्याग एव परम्परया पंचमगतिहेतुभूतं पंचमवतमिति ।
तथा चोक्त समयसारे
"भझं परिगहो जवि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज । णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।"
तथा हि-- -- - - - - - - - - - - - - - - - - वहतः पंचभवतं इति भरिणतम्] वह चारित्र के भार को वहन करने वाले साधु का पांचवां व्रत कहलाता है।
टीका--यहां यह पंचमव्रत का स्वरूप कहा है ।
संपूर्ण परिग्रह के परित्यागलक्षण निज कार परमात्मा के स्वरूप में जो स्थित हैं, परमसंयमी हैं. परमजिन योगियों के स्वामी हैं, नथा हमेशा ही जो निश्चय
और व्यवहार स्वरूप श्रेष्ठ चारित्र के भार को वहन करने वाले हैं ऐसे साधुओं के बाह्य और आभ्यन्तररूप से चौबीस प्रकार के परिग्रह का परित्याग ही परम्परा से पंचमगति के लिए कारणभूत पांचवां व्रत कहलाता है।
उसी प्रकार 'समयसार में भी कहा है--
"यदि यह बाह्य परिग्रह मेरा हो जाये तब तो मैं अजीवपने को प्राप्त हो जाऊं 1 जिस हेतु से मैं ज्ञाता ही हूँ उसी हेतु से यह परिग्रह मेरा नहीं है ।"
इसी बात को श्री टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा आत्मस्वरूप में स्थिर होने का उपदेश दे रहे हैं-]
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१. गाथा १०८,