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शुदभाब अधिकार
[ १४६ परिणतेज्जीवस्य टंकोत्कीर्णज्ञायककस्वभावनिजपरमतत्त्वश्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांत
खपरमबोधेन, तद्पाविचलस्थितिरूपसहजचारिश्रेण अभूतपूर्वः सिद्धपर्यायो भवति । सा परमजिनयोगीश्वरः प्रथम पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य शिल व्यवहारनयगोचरतपश्चरणं भवति । सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः । स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति ।
अभेद-अनुपचार रत्नत्रय में परिणत हप जीव के टंकोत्कीर्ण नायक एक समाव निजपरमतत्त्व के श्रद्धान से. उस टंकोत्कीर्ण जायक एक स्वभाव निजपरम त्व को जानने मात्र अंतर्मुख हा परमबोध से और उसी टंकोकीणं एक स्वरूप में विचल स्थिनिरूप सहज चारित्र मे अभूतपूर्व सिद्धपर्याय प्रगट होती है । न जो परम जिनयोगीश्वर पहले पाप क्रियाओं के अभावरूप व्यवहार चारित्र
स्थित होते हैं, उनके निश्चितरूप में व्यवहारनय के विषयभूत व्यवहार नपश्चरण होता है, तथा सहजनिश्चयनयात्मक परमम्वभावरूप परमात्मा में प्रतपन करना तप
जो अपने स्वरूप में अविचल स्थितिम्रप महानिश्चयचारित्र है वह इस निश्चयनप सिद्ध होता है, ऐसा अर्थ है। । विशेषार्थ-यहां पर तीन गाथाओं में ग्रंथकार ने व्यवहार सम्यक्त्व और के उत्पत्ति के कारण को बतलाया है पुनः दो गाथाओं से निश्चयव्यवहार रत्नत्रय संकेत करते हुए व्यवहार-निश्चय चारित्र को कहने की सूचना दी है । * एक बात यहां ५३ वीं गाया की टीका में महत्त्व को बतलाई है कि सम्यक्त्व अमित्त जिनसूत्र हैं और उनके जानने वाले पुरुष अंतरंग हेतु हैं। इसका मतलब
कि सम्यक्त्व का अंतरंग हेतु तो दर्शनमोहनीय आदि कर्मो का क्षय, उपशमका क्षयोपशम है । उस दर्शनमोहनीय के क्षय आदि में ये जिनसूत्र के जायक पुरुष
माने गये हैं. इसलिए वे भी अंतरंग हेतू के हेतु होने से उपचार से अंतरंग हेतु दिये गये हैं। आगम में क्षायिकसम्यक्त्व के लिये तो नियम से केवली या श्रुत
का पादमूल बनलाया है । यथा--- "दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय होने का प्रारम्भ या अतकेवली के पादमूल में कर्मभूमि का उत्पन्न हुआ मनुष्य ही करता है