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व्यवहारचारित्र अधिकार जो गग मे या द्वेप से वा मोह में कभी । होता असत्य भाषण परिणाम अशुभ ही ।। उसको जो छोड़ते हैं उन साधु के सदा ।
होता द्वितीयव्रत है जो सत्य नाग का ॥५७।। सत्यवतस्वरूपाख्यानमेतत् । अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्षः, स च रागेण वा हुषेण वा मोहेन वा जायते । तदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवः तं परिणाम परित्यजति तस्य द्वितीयवतं भवति इति ।
(शालिनी) वक्ति व्यक्त सत्यमुच्चर्जनो यः स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगकभाक् स्यात् । अस्मिन् पूज्य: सर्वदा सर्वसद्धिः सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति ब्रतं किम् ।।७७।।
प्रजहाति } जो साधु छोड़ता है, [तस्य एव सदा] उमी के सदा [द्वितीयव्रतं भवति] द्वितीय महावत होता है।
टीका--यह सत्यव्रत के म्बा
का कथन है ।
यहां पर सत्य से विरुद्ध जो परिणाम है वह मृषा-असत्य परिणाम है। वह परिणाम राग से अथवा द्वेष से अथवा मोह से उत्पन्न होता है । जो आसन्नभव्य जीव साधु उस असत्य परिणाम का त्याग कर देता है, उसके दूसरा महावत होता है ।
[ अब टीकाकार श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव टीका पूर्ण करते हुए श्लोक कहते हैं-]
(७७) श्लोकार्थ-जो पुरुष अन्यन्त स्पष्टरूप सत्य वचन को बोलता है वह स्वर्ग की देवांगनाओं के विपुल भोगों का एक भागी-भोक्ता हो जाता है और इस लोक में हमेशा सर्व सत्पुरुषों के द्वारा पूज्य हो जाता है सचमुच में सत्य से बढ़कर क्या अन्य कोई सत्य-समीचीनद्वत हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है ।।७७।।