________________
१५६ ]
नियमसार
गामे वा यरे' वा, हरणे वा पेछिऊण परमत्थं । जो सुर्यादि गहणमावं, तिदियवदं होवि तस्सेव ॥ ५८ ॥ ग्रामे वा नगरे वारण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमर्थम् । यो मुंचति ग्रहणभावं तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ॥ ५८ ॥
जो ग्राम या नगर में या वन में कहीं भी 1 पर वस्तु द पर शिष्यों को देख करके भी ॥ जो छोड़ते उन सबके ग्रहरण भाव को मुदा । संपदा ॥५८॥ उनका श्रचौर्यबत ये दे स्वात्म
तृतीय व स्वरूपाख्यानमेतत । वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुभिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्यसंचारशून्यं वनस्पतिजातबल्ली गुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णभरण्यं तस्मिन् वा परेण वा विसृष्टं निहितं पतितं वा विस्मृतं वा परद्रव्यं दृष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति तस्य हि तृतीयव्रतं भवति ।
गाथा ५८
अन्वयार्थ - [ ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा ] ग्राम में, अथवा नगर में, अथवा वन में [ यः परं अर्थ प्रेक्षयित्वा ग्रहणभावं मुंचति ] जो माधु पन्धन को देखकर उसके ग्रहण करने के भाव का त्याग कर देता है. [ तस्य एव तृतीयं व्रतं भयति ] उसके ही तीसरा व्रत अचौर्य महाव्रत होता है ।
टीका — यह तीसरे व्रत के स्वरूप का कथन है ।
जो चारों तरफ से बाढ़ से वेष्टित हो वह ग्राम कहलाता है, चारों तरफ शून्य वनस्पति वन कहते हैं ।
से
चार गोपुर द्वारों से सुशोभित को नगर कहते हैं. समूह, बेल, और छोटे-छोटे वृक्षों के झुण्ड आदि ऐसे ग्राम में अथवा नगर में अथवा वन में पर के गिरी हुई, अथवा भूली हुई पर वस्तु को देखकर उसके स्वीकार करने के परिणाम का जो त्याग कर देता है, निश्चित ही उसके तीसरा महाव्रत होता है ।
द्वारा छोड़ी गई, रखी हुई, अथवा
१. नगरे ( क ) पाठान्तर
मनुष्य के संचार से परिपूर्ण स्थान को