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नियमसार
कस्य शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्याधारः सहजपरमपारिणामिकभावलक्षणकारणसमयसार इति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्र सूरिभिः
( शार्दूलविक्रीडित ) "सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितर्मोक्षार्थिभिः सेव्यता शुद्धचिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसंति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥"
तथा हि. - - - . .. . . .- .. - - - . - विभावपर्यायों से रहित शुद्धचैतन्यतत्त्वस्वरूप जो स्वद्रव्य है वही उपादेय है । निश्चिन रूप मे सहजज्ञान, सहजबर्शन, सहजचाग्वि, सहजपरमवीतराग सुखात्मक शुद्धचैतन्यतत्त्वस्वरूप इस स्वकीय द्रव्य का आधार सहज परमपरिणामिक भाव लक्षणवाला कारणसमयसार है, ऐसा समझना।
उसी प्रकार से श्रीअमृतचन्द्रमरि ने भी कहा है -
"श्लोकार्थ-.'जिनकं चिन का चारित्र उदात्त-उत्तम है ऐसे मोक्षार्थीमुमुक्षयोगीजन इस सिद्धांत का सेवन करो-आश्चय लेवो कि "मैं तो सदा ही शुद्ध हैं चिन्मय एक ही परम ज्योतिस्वरूप हू" और ये जो भिन्न-भिन्न लक्षण वाले विविधभाव स्फुरित हो रहे हैं, वे भाव में नहीं हूं क्योंकि यहां पर वे सम्पूर्ण भी भाव मुझसे पर द्रव्यरूप हैं। अर्थात् अपने शुद्ध चैतन्यभाव को ही ग्रहण करके सम्पूर्ण पौद्गलिक परभावों को छोड़ना चाहिए, यहां ऐसा उपदेश है।
उसी प्रकार से- अब टीकाकार श्री मुनिराज अपूर्वलाभ के उपाय को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं--
१. समयमार कलश, १८५ ।