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नियमसार
एदे सत्वे भावा, ववहाररणयं पडुच्च भरिणदा हु। सव्वे सिद्धसहावा, सुद्धणया संसिदी' जोवा ॥४६॥
एते सर्वे भावा व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु । सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ।।४६॥
ये सर्व भाव जितने का प्राये पूर्व में । व्यवहार नय से हाते भाषा है मुरि ने ।। मंसार में भी जिनने है जीव सदा ही।
व शुद्भनय से मान सब गिद्ध स्वभावी ।।४६ ।। निश्चयव्यवहारनययोरुपादेयत्वप्रद्योतनमेतत । ये पूर्वं न विद्यन्ते इति प्रतिपादितारते सर्व विभावपर्यायाः खलु व्यवहारनयादेशेन विद्यन्ते । संसृतावपि ये विभावभाव
ही टीकाकार महामनि ने नगवार किया है। निरठे मानवें गणथान में परिवर्तन करने बाद मनिगज पयप्रभमलवारि देब चनथं या चप गुणस्थानवी मम्बग्दृष्टि का नमस्कार नहीं कर सकते हैं ।
गाथा ४६ अन्वयार्थ— [एते सर्वे भावाः ] ये मझ नाव [खलु ] निश्चय में व्यवहारनयं प्रतीत्य भरिणताः] व्यवहारनय की अपेक्षा में कह गये हैं. [शुद्धनयात ] किन्तु श.द्वनय मे [ संसृतौ ] संसार में [ सर्वे जीवाः ] मभी जीब [ सिद्धस्वभावा: ] मिद्ध स्वभाव वाले हैं।
टीका–निश्चय और व्यवहाग्नय की उपादेयता का यह प्रकाशन है। जो 'पूर्व में विद्यमान नहीं हैं। इस प्रकार में प्रतिपादिन की गई हैं वे सभी विभावपर्याय निश्रितरूप स व्यवहारनय कं. आदेश मे (जीव में विद्यमान हैं । ममार में भी जो जीव चार प्रकार के विभाव भावों में शामिका, क्षानोपशामक, औपना मित्र और औदायिक भात्रों में परिणत होते हा रहते हैं, वे भी मभी जीव शुद्धनय के आदेश से भगवान सिद्धों के शुद्धगुण और शुद्धपर्यायों के समान ही हैं ।
१. संसदी (क) पाठान्तर