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नियमसार प्रशरोरा अविनाशा अतीन्द्रिया निर्मला विशुद्धात्मानः । पथा लोकाने सिद्धास्तथा जीवाः संसृतौ जेयाः ॥४॥
प्रशारीरि नाशशून्य पोर अमल अतीन्द्रिय । होकर विशुद्ध प्रात्मा शुचि दर्शज्ञानमय ।। जैसे त्रिलोकमस्तक पर सिद्ध राजते ।
वैसे हि जग में प्राणी सब साधु भाषते ॥४८॥ प्रयं च कार्यकारणसमयसारयोविशेषाभावोपन्यासः । निश्चयेन पंचशरीरप्रपंचाभावादशरीराः, निश्चयेन नरनारकाविपर्यायपरित्यागस्वीकाराभावादविनाशाः, युगपत्परमतत्त्वस्थितमहजदर्शनादिकारणशद्धस्वरूपपरिच्छित्तिसमर्थसहजज्ञानज्योतिरपहस्तितसमस्तसंशयस्वरूपत्वादतीन्द्रियाः, मलजनकक्षायोपशमिकादिविभावस्वभावानामभावात्रिमंलाः, द्रव्यभावकर्माभावाद् विशुद्धात्मानः यथैव लोकाग्ने भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिनस्तिष्ठन्ति, तथैव संसृतावपि अभी केनचिन्नपबलेन संसारिजीयाः शुद्धा इति । ---... - - - .
. . . . . --- . . . .- . - [विशुद्धात्मानः ] विशद्ध स्वरूप वाले [ यथा लोकाग्रे ] जैसे लोक के अग्रभाग में [सिद्धाः] मिद्ध भगवान् है. [तथा] वैसे ही [संसृतौ] संसार में [जोवाः] जीवों को भयाः] जानना चाहिए।
टीका-यह, कार्यसमयमार और कारणसमयमार में अन्तर के अभाव का कथन है।
निश्चयनय की अपेक्षा में पांच प्रकार के शरीर के प्रपंच का अभाव होने से जो अशरीरी हैं । निश्चयनय से नरनारक आदि पर्यायों के छोड़ने और ग्रहण करने का अभाव होने से जो अविनाशी हैं । युगपत् परमतत्त्व में स्थित सहजदर्शन आदि रूप जो कारण शद्धस्वरूप हैं उसको जानने में समर्थ सहजज्ञान ज्योति से समस्त संशय के स्वरूप को दूर कर देने वाले होने से जो अतीन्द्रिय हैं, मलको उत्पन्न करने वाले गमे क्षायोपशमिक आदि विभाव स्वभावों के अभाव से जो निर्मल हैं, और द्रव्यकर्म भावकर्म के अभाव से जो विशुद्धात्मा हैं, जैसे वे लोक के अग्रभाग में सिद्ध परमेष्ठी दिराजमान हैं, वैसे ही संसार में भी ये संसारी जीव किसी नय के बल से शुद्ध हैं, यहां यह अभिप्राय है।