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नियमसार
जारिसिया' सिद्धप्पा, भवमल्लिय' जीवतारिसा होंति । जरमररणजम्ममुक्का, गुणालंकिया जेा ॥४७॥
यादृशाः सिद्धात्मानो भवमालीना जीवास्तादृशा भवन्ति । जरामरणजन्ममुक्ता श्रष्टगुणालंकृता येन
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जैसे हैं सभी मिद्ध श्रात्मायें मोक्ष में 1 संसारि जीव वैसे हैं सर्वलोक में 11 जैसे ये जन्मजरामरण रहित सिद्ध हैं । गुण युक्त हैं वैसे हि ये भी हैं ॥४७॥
शुद्धद्रव्याथिकनयाभिप्रायेण संसारिजीवानां मुक्तजोवानां विशेषाभावोपन्यासोयम् । ये केचिद् प्रत्यासन्नभव्यजीवाः ते पूर्वं संसारावस्थायां संसारक्लेशाया सचिताः
भावार्थ - भले ही कर्म का बंध होवे तो भी शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध जीव परद्रव्य के संबंध से रहित है । ऐसा समझकर शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करना चाहिए । और उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए ।
गाथा ४७
अन्वयार्थ - [ यादृशाः ] जैसे [ सिद्धात्मानः ] सिद्ध परमात्मा हैं, [ तादृशाः ] वैसे [भवं प्रालीनाः ] भव को प्राप्त हुए [ जीवाः ] संसारी जीव [भवंति ] होते हैं । [ येन ] जिससे वे [ जरामरणजन्ममुक्ताः ] जन्म, जरा और मरण से रहित हैं, तथा [ श्रष्टगुणालंकृताः ] आठ गुणों से अलंकृत हैं । अर्थात् जिस नय से वे सिद्धसदृश हैं उसी नय से वे जन्मादि से रहित और अष्ट गुणों से सहित हैं ।
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टीका- - शुद्ध द्रव्याथिकनय के अभिप्राय से संसारी जीवों में और मुक्त जीवों में कुछ अंतर नहीं है, यहां यह कथन है ।
जो कोई अत्यासन्न - अतिनिकट भव्य जीव हैं वे पूर्व में संसार अवस्था में संसार के क्लेश से थके हुए चित्त वाले होते हुए सहज वैराग्य भाव में तत्परता सहित,
१. जारिसया ( क ) पाठान्तर २. भवमल्लीय ( क ) पाठान्तर