________________
१३४ ]
नियमसार ___ इह हि परमस्वभावस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य समस्तपौद्गलिकविकारजातं न समस्तीत्युक्तम् । निश्चयेन वर्णपंचकं, रसपंचक, गन्धद्वितयं, स्पष्टिकं, स्त्रीनपुसकादिविजातीयविभावव्यंजनपर्यायाः, कुब्जाविसंस्थानानि, बज्रर्षभनाराचादिसंहननानि विद्यन्ते पुद्गलानामेव, न जीवानाम् । संसारावस्थायां संसारिणो जीवस्य स्थावरनामकर्मसंयुक्तस्य कर्मफलचेतना भवति, प्रसनामकर्मसनाथस्य कार्ययुतकर्मफलचेतना भवति । कार्यपरमात्मनः कारणपरमात्मनश्च शुद्धज्ञानचेतना भवति । अत एवं कार्यसमयसारस्य वा कारणसमयसारस्य वा शुद्धज्ञानचेतना सहजफलरूपा भवति । अतः सहजशुद्धज्ञानचेतनात्मानं निजकारणपरमात्मानं संसारावस्थायां मुक्तावस्थायां वा सर्वदैकरूपत्वादुपागभिति हे शिष्य त्वं जानीहि इति ।
-
तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ--
टीका-परम स्वभाव वाले कारण परमात्मा के स्वरूप में संपूर्ण पौद्गलिक विकारों का समूह नहीं है, यहां पर ऐसा कथन है ।
निश्चयनब से पांच वर्ण, पांच रम, दो गंध, आठ स्पर्श, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि विजातीय विभाव व्यंजन पर्याय कुब्जक आदि संस्थान, वनवृषभनाराच आदि संहनन पुद्गलों के ही हैं, किन्तु जीवों के नहीं है। संसारावस्था में स्थावरनामकर्म से संयुक्त ऐसे संसारी जीव के कर्मफलचेतना होती है और वसनामकर्म से सहित जीव के कार्ययुत-कर्मचेतना सहित कर्मफलचितना होती है। तथा कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा के शुद्धज्ञान चेतना होती है । अतएव कार्यसमयसार के अथवा कारण । समयसार के शुद्धज्ञानचेतना सहजफलरूप होती है। इसलिये हे शिष्य ! सहज शुद्ध- । ज्ञानचेतना स्वरूप निजकारणपरमात्मा को तुम संमार अवस्था में अथवा मुक्त अवस्था : में सर्वदा एकरूप होने से उपादयभूत जानो, ऐसा अभिप्राय है ।
-
उसी प्रकार 'एकत्वसप्तति में कहा भी है
.
१. पद्मनन्दिपंचवि०, एकत्वसन्ततिमधि० श्लोक ७६ ।