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शुद्धभाव अधिकार सन्तः सहजवराग्यपरायणाः द्रव्यभालिंगधराः परमगुरुप्रसादासादितपरमागमाभ्यासेन सिद्धक्षेत्रं परिप्राप्य निर्व्याबाधसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेबलक्तियुक्ताः सिद्धात्मानः कार्यसमयसाररूपा कार्यशुद्धाः। ते यादृशास्तावृशा एव भविनः शुद्धनिश्चयनयेन । येन कारणेन तादृशास्तेन जरामरणजन्ममुक्ताः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्चेति ।
( अनुष्टुभ् ) प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि ।
नयेन केनचित्तेषां भिवां कामपि वेम्यहम् ॥७१॥ प्रसरीरा अविरणासा, अणिदिया णिम्मला विसद्धप्पा। जह लोयग्गे'सिद्धा, तह जीवा संसिदो गेया ॥४॥
- - - - - - - -- - - - - द्रव्य और भालिग के धारक थे वे, परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त हुये परमागम के अभ्यास के बल से मिट्ट क्षेत्र को प्राप्त करके बाधा हित सकल विमल, कंवलज्ञान केवलदर्शन केवलगल और केवलशक्ति से युक्त सिद्ध आत्मा परमात्मा कार्यममयमार रूप कार्य शुद्ध हो चुके हैं, वे जैसे हैं, शुद्ध निश्चयनय से वैसे ही समारो जीव हैं और जिस हेतु से वे मंसारी मुक्त जीवों के सदृश हैं, उसी हेतु मे वे जन्म जग और मरण से रहित हैं तथा सम्यक्त्व आदि आठ गुणों की पुष्टि से तुष्ट हैं, ऐमा अभिप्राय है।
[अब टीकाकार श्री मुनिराज भी शुद्धनिश्चयनय के बल से संमार में भी संसारी जीवों को गढ़ कहते हुए श्लोक कहते हैं---]
(७१) श्लोकार्थ-जिन मुबुद्धि-सिद्ध परमेष्ठी और कुबुद्धि-संसारी जीवों में भी पहले से ही शुद्धता है। उनमें कुछ भी भेद को मैं किसी नय से जानता हूं । अर्थात् शुद्धनिश्चयनय में सभी मंसारी जीव सिद्धों के सदृश शुद्ध ही हैं ! कभी अशुद्ध हुये ही नहीं हैं।
गाथा ४८ अन्वयार्थ- [अशरीराः] शरीर मे रहित, [अविनाशा:] विनाय से रहित, [ अतीन्द्रियाः ] इंद्रियों के ज्ञानादि से रहित-अतींद्रिय, [ निर्मलाः ] कर्ममल रहित,
१. लोयगो (क) पाठान्तर