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निक्मसार तथा चोक्त श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः- [प्रवचनसारे]
( मंदाक्रांता) "इत्युच्छेदात्परपरिणतेः कर्तृकर्मादिभेदभ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशवे मूच्छितश्चेतनोऽयं
स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एय ॥" तथा हि
( मंदाक्रांता) ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तसंघातकात्मा नित्यानन्दाद्यतुलमहिमा सर्वदा मूर्तिमुक्तः । स्वस्मिन्नुच्चैरविचलतया जातशीलस्य मलं यस्तं वन्दे भवभयहरं मोक्षलक्ष्मीशमीशम् ॥६६॥
उसी प्रकार में श्री अमनचन्द्रमरि ने भी कहा है
"श्लोकार्थ-इस प्रकार मे परपरिणति के नष्ट हो जाने से और कर्ता, कर्म आदि भेदों की भ्रांति के भी ध्वम हो जाने से चिरकाल से बड़ी मुश्किल से जिसने आत्म तत्त्व को उपलब्ध किया है ऐसा यह चेतन आत्मा सच्चतन्य मात्र, स्वच्छ तेज में मुच्छित होता हुआ-तन्मय होता हुआ या लीन होता हुआ और उदित हो रही है सहज महिमा जिसकी ऐसा यह सर्वदा मुक्त ही रहेगा ।"
उसी प्रकार |अब टीकाकार श्री मुनिराज शुद्ध आत्म तत्त्व की वंदना करते हुए श्लोक कहते हैं
(६६) श्लोकार्थ-जिसने ज्ञानज्योति से पापरूपी अंधकार के समूह को समाप्त कर दिया है, जो नित्य आनन्द आदि अतुल महिमा का धारण करने वाला है जो हमेशा स्पर्श, रस, गंध, वर्ण रूप मूर्ति से रहित है, अपने स्वरूप में अत्यन्त रूप से स्थिर होने से उत्कृष्ट शील का मूल है, ऐसे उस भवभय को हरण करने वाले मोक्ष लक्ष्मी के सुख के स्वामी-भोक्ता को मैं नमस्कार करता हूं।