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नियमसार
अस्तीत्यस्य भावः प्रस्तित्वम् । श्रनेन अस्तित्वेन कायत्वेन सनाथाः पञ्चास्तिकायाः । कालद्रव्यस्यास्तित्वमेव न कार्यत्वं, काया इव बहुप्रवेशाभावादिति ।
( श्रार्या )
इति जिन मार्गाम्भोधेरुद्धृता पूर्वसूरिभिः प्रीत्या । षड्द्रव्यरत्नमाला कंठाभरणाय मध्यानाम् ॥ ५१ ॥
पेन आदि की अपेक्षा नास्तित्व धर्म भी विद्यमान है । वस्तु का अस्ति धर्म जितना महत्व रखता है उतना हो महत्व नास्तित्व धर्म भी रखता है, अन्यथा यह जीव अजीव हो जावे |
यह महासत्ता मत् सामान्य रूप है, अभिप्राय यह है कि सभी अस्तिरूप से ग्रहण कर लेती है । ग्रवान्तर सत्ता प्रत्येक वस्तु की अलग-अलग है जैसे हमारी, यापकी, पुस्तक की सिद्धों की आदि सबकी अपनी-अपनी सत्ता पृथक् पृथक् है ।
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पांच द्रव्य अस्ति रूप भी हैं श्रीर बहुप्रदेशी होने से कायरूप भी हैं इसलिये अस्तिकाय हैं। भले ही पुद्गल का प्रत्रिभागी परमाणु एक प्रदेशी - अप्रदेशी है फिर भी वह स्कन्ध रूप बनने की शक्ति रखता है इसलिए उपचार से वह भी बहुप्रदेशी कह दिया जाता है अतः वह भी अस्तिकाय है है, किन्तु उपचार से भी बहुप्रदेशी न होने से अस्तिकाय संज्ञक है । वैसे द्रव्यरूप से द्रव्य तो
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काल द्रव्य अस्ति रूप से प्रस्ति तो काम नहीं है इसलिए पांच द्रव्य हो छह हैं ही हैं ।
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज षट् द्रव्य रूपी रत्नों से विभूषित होने का उपदेश देते हुए श्लोक कहते हैं । ]
( ५१ ) श्लोकार्थ - इसप्रकार पूर्वाचार्यों ने प्रीति पूर्वक भव्यों के कंठ के भूषण के लिए षड् द्रव्य रूपी रत्नों की माला निकाली है ।
भावार्थ - जिसप्रकार समुद्र से रत्न निकाले जाते हैं और धनी पुरुष उनकी माला पहन लेते है उसी प्रकार से भगवानकी वाणी रूपी समुद्र से आचार्यों ने छह