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अजीव अधिकार संखज्जासंखेज्जा'तपदेसा हवंति मुत्तस्स । धम्माधम्मस्स पुरणो, जोवस्स असंखदेसा हु ॥३५॥ लोयायासे ताव, इबरस्स अणंतयं हवे देसा । कालस्स रण कायत्तं, एयपदेसो हवे जम्हा ।।३६॥
संख्यातासंख्यातानंतप्रदेशा मवन्ति मूर्तस्य । धर्माधर्मयोः पुनर्जीवस्यासंख्यातप्रदेशाः खलु ॥३५॥ लोकाकाशे तद्ववितरस्यानंता भवन्ति देशाः । कालस्य न कायत्वं एकप्रदेशो भवेद्यस्मात् ।।३६।। संख्यात प्रसंख्यात प्रो अनंत प्रदेशो । पुद्गलदरब हैं उसमें प्ररणु एक प्रदेशी ।।
द्रव्यरूपी रत्न निकाले हैं और इन रत्नोंकी माला भव्यों के कण्ठ का आभरण बनती है अर्थात् भव्य जोव ही इन छह द्रव्यों के. मर्म को हृदयंगम करते हैं, अभव्य नहीं करते हैं।
गाथा ३५-३६ __ अन्वयार्थ-[ मूर्तस्य ] मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के [संख्यातासंख्यातानंतप्रदेशाः] संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश [ भवंति ] होते हैं [ धर्माधर्मयोः ] धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य [ पुनः जीवस्य ] और जीबद्रव्य के [ खलु असंख्यात प्रदेशाः ] निश्चित रूप से असंख्यात प्रदेश हैं।
[लोकाकाशे तद्वत् ] लोकाकाश में इन्हीं धर्मादि तीनों के सदृश असंख्यातप्रदेश होते हैं [ इतरस्य अनंता: प्रदेशाः ] अन्य प्रलोकाकाश में अनन्त प्रदेश होते हैं [ कालस्य कायत्वं न ] काल द्रव्य के कायपना नहीं है [ यस्मात् ] इसी हेतु से [एकप्रदेशः भवेत ] एक प्रदेश वाला होता है ।
१. संखेज्जासंखिज्जा (ब) पाठान्तर ।