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अजीव अधिकार
[ १०३ ( मालिनी) इति ललितपदानामावलि ति नित्य वदनसरसिजाते यस्य भव्योत्तमस्य ।
..- - - -.-.-..-.. "'वण्णरसपंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे ।
णो संति अमुत्ति तदो बवहारा मुत्ति बंधादो ।।"
अर्थ- पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और पाठ स्पर्श निश्चयनय से ये जोव ___ में नहीं हैं इसलिये जीव प्रतिक है और व्यवहार नय से कर्म बन्ध होने से जीव मूर्तिक है।
ऐसे ही श्री भट्टाकलंक देव ने भी कहा है
प्रश्न- 'आत्मा अमूनिक है अतः उमका कर्म पुद्गलों से अभिभव नहीं ___ होना चाहिए।
उत्तर-अनादि कर्मबन्धन के निमित्त से उसमें विशेष शक्ति आ जाती है। यद्यपि अनादि पारिणामिक चैनन्यस्वरूप प्रात्मा को नरनारकादि एवं मतिज्ञानादि पर्यायें चेतन हो हैं, फिर भी वह अनादि काण शरीर के कारण मूर्तिक हो रहा है और इसीलिये उस पर्याय सम्बन्धी शक्ति के कारण मूर्तिक कर्मों को ग्रहण करता है । प्रात्मा कर्मबद्ध होने से कथंचित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभाव को न छोड़ने के कारण प्रमूत्तिक है। जैसे मदिरापेयो की स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है वैसे ही कर्मोदय से प्रात्मा के स्वाभाविक ज्ञानादि गुण अभिभूत हो जाते हैं । ..."कहा भी है--"बंध की अपेक्षा से आत्मा और कर्म में एकत्र होने पर भी लक्षण की अपेक्षा से दोनों में भिन्नता है अतः प्रात्मा एकान्त से अमूत्तिक नहीं है ।"
[ अव टोकाकार श्री मुनिराज पद्रव्यों में से समयसार की सिद्धि रूप फल को बताते हुए श्लोक कहते हैं--]
१. द्रव्यसंग्रह गाथा ७. अ.१। २. तत्त्वार्थवातिक पृष्ठ ११७॥ ३. "बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो होदि तस्स रणागतं ।
तम्हा अमुनिभावो गोयतो होदि जीवरस' ॥ तत्त्वार्थ वा. ५. ११८॥