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. .. नियमसार चउगइभवसंभमरणं, जाइजरामरणरोगसोगा' य । कुलजोरिणजीवमग्गणठाणा जोवस्स गो संति ॥४२॥
चतुर्गतिभवसंभ्रमणं जातिजरामरणरोगशोकाश्च । कुल योनिजीवमार्गणस्थानानि जीवस्य नो सन्ति ।।४२॥
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शुद्धात्म तत्त्व के सम्यक श्रद्धान ज्ञान और अतुचरण रूप अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप है और अनन्तकेवलज्ञानादि चतुष्टय की व्यक्तिरूप ऐसे कार्यसमयसार का उत्पादक है। इस व्यवहार कारण समयसार और निश्चय कारण समग्रसार के बिना यह अज्ञानी जीव रोष और तोष करता है।"
ऐसे ही जयसेनाचार्य ने स्थल-स्थल पर कंवलज्ञानरूप व्यक्त अवस्था को कार्यसमयसार कहा है और उसके लिए कारण स्वरूप ऐसे निश्चय रत्नत्रय को कारण समयसार कहा है । तथा यहां पर तो जयसेनाचार्य ने उस निश्चय के लिए कारण स्वरूप ऐसे व्यवहार रत्नत्रय को भी व्यवहार कारण समयसार संज्ञा दी है। प्रस्तु,
यहां पर नियमसार की टोका में टीकाकार ने भी कारण समयसार और कार्यसमयसार रूप ऐसे सारभूत तत्त्व के स्वरूप का आश्रय लेने का आदेश दिया है। इसका ऐसा भी अभिप्राय समझना चाहिये कि पहले भेदरत्नत्रय होता है, अनन्तर ही अभेद रत्नत्रय प्रगट होता है । भेदरत्नत्रय के बिना अभेद रत्नत्रय हो नहीं सकता है, फिर भी उसको प्राप्त करने के बाद प्रागे शुद्धोपयोग रूप अभेद में पहुंच कर शुद्धात्म को प्रगट करना है।
- गाथा ४२ ___ अन्वयार्थ-[ चतुर्गतिभवसंभ्रमणं ] चार गतियों के 'भवों का परिभ्रमण [ जातिजरामरणरोगशोकाश्च ] जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, [ कुलयोनि जीबमार्गणस्थानानि च ] कुल योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान [ जीवस्य नो संति ] जोव के नहीं होते हैं ।
१. रोयसोका ( क ) पाठान्तर ।