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शुद्धभाव अधिकार
[ १२६ (मालिनी) अनिशमसुलबोधाधीनमात्मानमात्मा सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम् । निजपरिणतिशाम्भोधिमज्जन्तमेनं भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः ॥६४।।
(द्रुतविलंबित ) भवभोगपराङ मुख हे यते पदमिदं भवहेतुविनाशनम् । भज निजात्मनिमग्नमते पुनस्तव किमध्र ववस्तुनि चिन्तया ॥६५।।
(द्रुतविलंबित) समयसारमनाकुलमच्युतं जननमृत्युरुजादिविवज्जितम् । सहजनिर्मलशर्मसुधामयं समरसेन सदा परिपूजये ॥६६॥
--- - - - - -- - विराजमान है । वास्तव में महामुनि हमेशा छरे सातवें गुणस्थान में परिवर्तन करने वाले होते हैं इसलिए वे आत्मतत्त्व के अभ्यास में निपुण ही रहते हैं। ऐसा अभिप्राय है।
(६४) श्लोकार्थ-आत्मा अनुल ज्ञान के आधीन है, सहज-स्वाभाविक गुणमी मणियों की खान है, तत्वों का मार है, निजारिणति के सुखसागर में मग्न है । से आत्मा भव्यता से प्रेरित हो वह भब से मुक्त होने के लिए ऐसी आत्मा को भजो ।
। (६५) श्लोकार्थ-भव भोगों से पराछ मुख हे यतिराज ! भव के कारणों में विनाश करने वाले इस पद को तुम भजी-इस आत्मा के स्थिर पद का तुम आश्रय यो। हे निजात्मतत्त्व में निमग्न बुद्धि वाले साध ! पुनः तुम्हें अध्र व अनित्य वस्तु चिता से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं हैं।
(६६) श्लोकार्थ-अनाकुल, अच्युत, जन्म-मृत्यु और रोगादि से रहित, व निर्मल सुख सुधामय, समयसार-शुद्धात्मतत्त्व को मैं सदा समरसभाव से पूजता हूं।
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