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शुद्धभाव अधिकार
[ १२५ ( स्रग्धरा) इत्थं बुद्ध्वोपवेशं जननमृतिहरं यं जरामाशहेतु भक्तिप्रवामरेन्द्र प्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघ्र।। वोरातीर्थाधिनाथाद्दुरितमलकुलध्वांतविध्वंसदक्षं
एते संतो भवाब्धेरपरसटममी यांति सच्छोलपोता: ॥६१।। गिद्दडो गिद्द हो, रिणम्ममो,' रिणकलो हिरालंबो। णीरागो णिहोसो, रिणम्मूढो रिणब्भयो अप्पा ॥४३॥
निर्दण्डः निईन्द्रः निर्ममः नि:कलः निरालंबः । नोरागः निर्दोषः निर्मूढः निर्भयः प्रात्मा ।।४३।।
विकल्पों को नहीं करता है पुनः निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर निर्दोष चिन्मात्र गदान आत्मा को प्राप्त कर लेता है ।
(६१) श्लोकार्थ-भक्ति से नमस्कार करते हुए सुरेन्द्र के मुकुटों की उत्कृष्ट सानों की मालानों द्वारा जिनके चरण युगल अचित हैं ऐसे तीर्थ के अधिनायक भगवान बहावार से जन्म, जरा मरण के नाशक उपदेश को प्राप्त कर सम्यकचारित्र रूपी नौका भर बैठे हुए ये संत पुरुष संसार समुद्र के दूसरे तट को प्राप्त कर लेते हैं। । भावार्थ-जो भव्य जीव भगवान महावीर के निश्चय व्यवहाररूप उभय वात्मक उपदेश को प्राप्तकर सम्यकचारित्र को धारण कर लेते हैं वे संसार समुद्र से र हो जाते हैं, यहां अभिप्राय है ।
गाथा ४३ अन्वयार्थ - [ आत्मा ] आत्मा [ निर्दण्डः ] दण्डरहित-मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से रहित [ निईन्द्रः ] द्वन्द्व रहित [ निर्ममः ] ममता रहित [ निः कलः ] और रहित [ निरालम्बः] पालम्बन रहित [ नोरागः ] राग रहित [ निर्दोषः ] व रहित [ निमूहः ] मूढ़ता रहित और [ निर्भयः ] भय रहित है । १. णिम्मम्मो (क) पाठान्सर ।