________________
११५ ]
नियमसार
!
11
( भार्या )
श्रचितपंचमगतये पंचममावं स्मरन्ति विद्वान्सः | संचितपंचाचारा: किचनभावप्रपंचपरिहीणाः ||५६ ||
प्रकार की दशा जिनका कारण है ऐसे चार भाव हैं और स्वभाव जिसका कारण है। ऐसा एक है ।
इसी गाथा की द्वितीय तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में श्री जयसेनाचार्य ने कहा है कि- "श्रयिक, औपशमिक और क्षायिक ये तीन भाव कर्मजनित हैं, क्षायिकभाव केवलज्ञानादिरूप है यद्यपि यह वास्तविक दृष्टि से शुद्ध बुद्ध एक जीव का स्वभाव है। तथापि कर्मक्षय से उत्पन्न होने की अपेक्षा उपचार से कर्मजनित ही है। शुद्ध पारिरणामिक भाव पुनः साक्षात् कर्मों से निरपेक्ष ही है । यहां व्याख्यान में मिश्रादि तीन मोक्ष के कारण हैं, मोहोदय से सहित श्रदयिक भाव बंध का कारण है और शुद्ध पारिणामिक भाव बंध मोक्ष का कारण है । इसके बाद “तथा चोक्तं" कहकर यह श्लोक दिया है जिसको कि समयसार की टीका में उद्धृत किया है ।
इस कथन से परस्पर विरोध आदि नहीं समझना चाहिये क्योंकि अपेक्षाकृत कथन है | यहां पर ग्रन्थकार का अभिप्राय जीव के स्वभाव मात्र कथन करने का ही है । अतएव क्षायिकभाव को भी विवक्षित नहीं किया है अतः इसमें बाधा नहीं है ।
[ अब टीकाकार मुनिराज पंचमभाव के महत्व को बतलाते हुए श्लोक कहते हैं- ]
(५८) श्लोकार्थ -- पांच आचारों से सहित और किचनभाव-परिग्रह भाव के प्रपंच से रहित विद्वान् साधु पूज्य पंचमगति को प्राप्त करने के लिए पंचम पारिणामिक भाव का स्मरण करते हैं ।
भावार्थ- जिन्होंने परिग्रह का त्याग नहीं किया है, गृहस्थ हैं, वे इसका श्रद्धान तो कर सकते हैं लेकिन पंचम भाव का आश्रय लेकर निर्विकल्प ध्यान नहीं कर सकते हैं ऐसा समझना चाहिए ।