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शुद्धभाव अधिकार
( शार्दूलविक्रीडित } प्रोत्यप्रोतिविमुक्तशास्वतपदे निःशेषतोऽन्तमुखनिर्भेदोक्तिशर्मनिमितविधिबाकृतावात्मनि । चैतन्यामृतपूरपूर्णवपुषि प्रेक्षावतां गोचरे
बुद्धि किन करोषि वांछसि सुखं त्वं संसृतेदु:कृतेः ।।५।। को ठिदिबंधारणा, पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा। जो अणुभागट्ठाणा, जीवस्स ण उदयठाणा वा ॥४०॥
विभाव विशेषण लगाकर स्पष्ट किया है। इस प्रकार जीव द्रव्य के शुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से कर्मोदय का अभाव होने से स्वभाव-विभाव, मान-अपमान, सुख-दुःख, हर्ष विषादादि भाव नहीं हैं बह निविकल्प चिच्चतन्य स्वरूप मात्र हो है ।
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[अब टोकाकार भी मुनिराज शाश्वत सुख में रुचि करने के लिये संसार के दुःख से छूटने के लिए प्रेरणा देते हुए श्लोक कहते हैं -- ]
(५५) इलोकार्य – जिसका प्रीति अप्रीति से रहित शाश्वत स्थान है जो सर्वप्रकार से अन्तर्मुख होने से भेद रहित निर्विकल्प उत्पन्न हुये सुख से निर्मित आकाश विम्ब के प्राकार वाला है - यात्मिक मुख से निर्मित निराकार है, चैतन्यरूपी अमृत के प्रवाह से पूर्ण भरित ही जिगका गरीर है जो बुद्धिमानों के गोचर है ऐसे आत्म तत्व में तू बुद्धि क्यों नहीं करता है ? प्रत्युत दुष्कृत रूप संसार के सुखों को वांछा करता है ।
भावार्थ-वास्तव में मात्मा हर्ष विपाद से रहित अविनाशी है आत्मा से उत्पन्न हुए निराकुल सुख से बनी हुई मूर्ति होते हुए भी निराकार है, चैतन्यामृत प्रवाह से लबालब भरी हुई हैं । ऐसी प्रात्मा में तो तू अपनी बुद्धि को नहीं लगाता है और इन सभी विशेषणों से विपरीत पापों के स्थान स्वरूप ऐसे सांसारिक सुखों को चाहता है सो क्या बात है । वास्तव में तुझे सांसारिक सुखों को छोड़कर प्रात्मा में बुद्धि लगानी चाहिए।