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तथा हि
नियमसार
( अनुष्टुभ् ) नित्यशुद्धचिदानन्दसंपदामाकरं परम् । विपदा मिदमेयोच्चैरपदं चेतये पदम् ॥ ५६ ॥
( वसन्ततिलका ) सर्वकर्मविषमूहसंभवानि
यः
मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि । भुना सहजचिन्मयमात्मतत्वं प्राप्नोति मुक्तिमचिराविति संशयः कः ।। ५७ ।
(५६) श्लोकार्थ – नित्य, शुद्ध, चिदानन्दमयी संपत्तियों की श्रेष्ठ खान स्वरूप तथा विपत्तियों का अत्यन्त रूप से यही ग्रपद - अस्थान रूप है ऐसे पद का मैं अनुभव करता हूं ।
भावार्थ -- जो अपना उत्कृष्ट पद है वह चिचैतन्यमयी संपत्तियों का स्थान है और विपत्तियों से सर्वथा दूर है उसीका अनुभव करना चाहिये ।
(५७) श्लोकार्थ - जो सर्व कर्म रूपी विषवृक्ष से उत्पन्न हुए, निज श्रात्मतत्त्व से विलक्षण फलों को छोड़कर इस समय सहज चिन्मय आत्म तत्व का अनुभव करता है वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है । इसमें क्या संशय है ।
भावार्थ - कर्म तो विषवृक्ष के समान हैं उनसे उत्पन्न हुए फल भी कडुबे ही होंगे इसलिए इन कर्म के उदयरूप सुख-दुःख फलों को छोड़कर श्रात्म तत्त्व का अनुभव करने से ही मुक्ति मिलती है । अभिप्राय यह है कि कर्म के उदय से उत्पन्न हुए सुखदुःख फल छोड़े नहीं जा सकते हैं किन्तु उस समय हर्ष विषाद परिणति को न करते हुए परम समताभाव को धारण करके उन सुख-दुःखों से अपने उपयोग को हटाकर अपने परमानन्द स्वरूप प्रात्म तत्त्व में स्थिर कर लेना ही उनको छोड़ना है और तभी कर्मों की निर्जरा होकर मुक्ति होती है इसमें कुछ भी संशय नहीं है ऐसा इस कलश का अभिप्राय है ।