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शुद्धभाव प्रधिकार ( मालिनी )
जयति समयसारः सर्वतत्वेकसारः सकलविलयङ्करः प्रास्तदुर्बारमारः । दुरितरुकुठारः शुद्धबोधावतारा सुखजलनिधिपूर : क्लेशवा राशिपारः ॥५४॥
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गो खलु सहावठारणा, गो माणवमारणभावठारणा वा । गो हरिसभावठारणा, गो जीवस्साहरिस्सठारणा वा ॥ ३६ ॥
दर्शन ही कहेगा न कि क्षायिक भाव रूप ऐसा यहां अभिप्राय है तथा शुद्धोपयोगी महामुनियों की निर्विकल्प ध्यान में परिणत आत्मा ही कारण परमात्मा है ।
[ अव टीकाकार मुनिराज उस शुद्धात्मा को आशीर्वादात्मक शब्दों से नमस्कार करते हुए श्लोक कहते हैं - ]
(५४) श्लोकार्थ – जो सर्व तत्वों में एक सारभूत है, सकल विलय-नष्ट होने योग्य भावों से दूर है, जिसने दुबर काम को नष्ट कर दिया है, जो पाप रूप वृक्ष को काटने के लिए कुठार स्वरूप है, शुद्धज्ञान का अवतार है, सुख समुद्र का तूर है. और जो क्लेश रूपी समुद्र का तट ऐसा समयसार ( शुद्ध ग्रात्मा ) जयशील हो
है
रहा है।
भावार्थ — परम योगीजन श्रपने हृदय में शुद्ध आत्मा का ध्यान करके अपनी कारण परमात्मारूप श्रात्मा को कार्य बना लेते हैं । अर्थात् देहरूपी देवालय में शक्तिरूप कारण परमात्मा विराजमान है वही व्यक्तरूप से कार्य परमात्मा बन जाता है ।
गाथा ३६
अन्वयार्थ - [ जीवस्थ खलु स्वभावस्थानानि न ] जीव के वास्तव में स्व"भाव स्थान नहीं हैं [ मानापमानभावस्थानानि वा न ] और मान-अपमान भाव के पान भी नहीं हैं [ हर्षभावस्थानानि न ] हर्षभाव के स्थान नहीं हैं [ वा अहर्षस्थानि न ] और अहर्ष-विषाद भाव के स्थान भी नहीं हैं ।
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