________________
उप
प्रजीव अधिकार
[ tot
खा: प्रदेशा भवन्ति । कालस्यैकप्रदेशो भवति, अतः कारणादस्य कायत्वं न भवति प्रख्यत्वमस्त्येवेति ।
( उपेन्द्रवज्रा )
पदार्थ रत्नाभरणं मुमुक्षोः
कृतं मया कंठविभूषणार्थम् । अनेन धीमान् व्यवहारमार्ग
बुद्ध्वा पुनर्बोधति शुद्धमार्गम् ।। ५२ ।।
"
पुग्मलदव्वं मृत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि । चेदरणभावो जोवो, चेदरणगुरणवज्जिया सेसा ||३७ ॥
सानन्त औदारिक आदि शरीरों के प्रदेश हैं। एक-एक शरीर प्रदेश में प्रनन्तानन्त सोपचयपरमाणु गीले में की तरह गुड़ धूल लगे हुए हैं। इसीप्रकार धर्मादि द्रव्यों स्य प्रदेश जानना चाहिए। श्रागम में जीव के प्रदेशों को चल और अचल दो में बताया है -- सुख-दुःख का अनुभव, पर्याय परिवर्तन या क्रोधादि दशा में जीव देशों की उथल पुथल को चल कहते हैं जीव के मध्य के आठ प्रदेश सदा स्थितल ही रहते हैं । प्रयोगी और सिद्धों के सभी प्रदेश सदा स्थित ही हैं । संसारी के व्यायाम आदि के समय उक्त ग्राठ मध्य प्रदेशों को छोड़कर शेष प्रदेश चल हैं। बाकी जीवों के दोनों प्रकार के होते हैं । अतः ज्ञात होता है कि जीवों के ही प्रदेश हैं, काल्पनिक नहीं हैं ।
।
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज छह द्रव्यों के ज्ञान की सफलता को बताते लोक कहते हैं--]
( ५२ ) श्लोकार्थ - मैंने मुमुक्षु जीव के कण्ठ को भूषित करने के लिये पदार्थ रत्नों का श्राभरण ( हार ) बनाया है । इससे बुद्धिमान् लोग व्यवहार मार्ग को करके पुनः शुद्धमार्ग ( निश्चय मार्ग ) को जान लेते हैं ।
२. मो (क) पाठान्तर ।