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प्रजीब अधिकार
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न च भवति फलं मे तेन कालेन किचिद्
निजनिरुपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय ।।४७।। जीदा पुगालाहोशंतागुम्मा नादि' संपदा' समया। लोयायासे संति य, परमट्ठो सो हवे कालो ॥३२॥
जीवात् पुद्गलतोनंतगुणाश्चापि संप्रति समयाः । लोकाकाशे संति च परमार्थः स भवेत्कालः ॥३२॥
जो जीव व पुद्गल से भी अनन्त गुण हैं । वे भाविकाल के समय संप्रति का एक है ।। इस लोक गगन में असंख्य काल अगा हैं।
उसने प्रमाण वे सभी परमार्थ काल हैं ।।३२।। मुख्यकालस्वरूपाख्यानमेतत् । जीवराशेः पुद्गलराशेः सकाशादनन्तगुणाः । के ते ? समयाः। कालाणवः लोकाकाशप्रदेशेषु पृथक पृथक तिष्ठन्ति, स कालः परमार्थः इति ।
तत्त्व रूप शुद्ध एक आत्मा को छोड़कर उस काल से किचित् भी फल नहीं है ।
भावार्थ-टीकाकार का कहना है कि शुद्ध निज प्रात्मतत्त्व के सिवाय मुझे इन कालों में कुछ भी प्रयोजन नहीं है ।
__ गाथा ३२ अन्वयार्थ--[ सम्पनि ] अब [ जीवात पुद्गलतः च अपि ] जीव और पुदगल से भी [ अनन्तगुणाः समयाः ] अनन्तगुणे समय होते हैं [ लोकाफाशे च संति ] । और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर जो विद्यमान हैं [मः परमार्थः कालः भवेत् ] वह परमार्थ काल होता है ।
टोका-मुख्य काल के स्वरूप का यह कथन है ।
जीव राशि और पुद्गल राशि में अनन्तगुणे समय है और कालाणु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेशों पर पृथक्-पृथक् ठहरे हुए हैं वह काल ही परमार्थ काल है ।
१. भावि ( क ) पाठान्तर २, सपदी ( क ) पाठान्तर ।