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प्रजीव मधिकार
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द्वाभ्याम् मासाभ्याम् ऋतुः । ऋतुभिस्त्रिभिरयनम् । अयनद्वयेन संवत्सरः । इत्यावन्यादिव्यवहार कालक्रमः । इत्थं समयावलिमेदेन द्विधा भवति, प्रतीतानागतवर्तमानमेवात् atarra अतीत सिद्धानां सिद्धपर्यायप्रादूर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावन्यादिव्यवहारकालः स कालस्यैषां संसारावस्थायां यानि संस्थानानि गतानि तैः सदृशत्वादनन्तः । प्रनागतकालोप्यनागत सिद्धानामनागतशरीराणि यानि तैः सदृश इत्यामुक्त ेः सकाशादित्यर्थः ।
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तथा चोक्त' पंचास्तिकायसमये -
"समग्र णिमिसो कट्ठा कला य खाली तदो दिवारो । मासोदप्रयणसंघच्छरो चि कालो परायत्तो ।।"
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व तीतकाल का विस्तार कहते हैं - अतीत कालीन सिद्धों के सिद्ध पर्याय के उत्पन्न होने के समय से पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहारकाल है वह इन सिद्धों के संसार अवस्था में जितने संस्थान - प्राकार शरीर व्यतीत हो चुके हैं उनके सहश होने से 'नंत' प्रमाण हैं । अनागतकाल भी अनागत सिद्धों के जितने अनागत शरीर होवेंगे उनके सदृश होने से उन ग्रनागत सिद्धों के मुक्त होने पर्यन्त जितना अर्थात् अनन्त है ।
पंचास्तिकाय सिद्धान्त में भी कहा है
गाथार्थ - 'समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, उससे आगे दिन-रात, मास, ऋतु, अपन और संवत्सर इसप्रकार का काल पराश्रित काल कहलाता है | प्रर्थात् परमाणु के मन्दगति से गमन आदि और सूर्य के उदय प्रस्तमन आदि की अपेक्षा रखने से यह पराश्रित होता है और यह व्यवहार कहलाता है ।
१. गोमटसारजीवकांड |
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विशेषार्थ -- यहां पर आचार्यदेव ने दो गाथानों द्वारा व्यवहार के भूत, भवियत् और वर्तमान ऐसे तीन भेद बतलाकर उनमें कितने समय होते हैं इसका वर्णन किया है जो कि ग्रस्पष्ट है। इसी संबंध में 'नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी कहा है
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