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अजीव अधिकार
( मालिनी )
इह गमननिमित्तं यरिस्यतेः कारणं या यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवोणम् । तदखिलमवलोक्य द्रव्यरूपेण सम्यक प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोकः ||४६ ॥
समयावलिभेवेरण दु, दुवियप्पं श्रहव होइ तिवियप्पं । तोदो संखेज्जावलिहद सिद्धाणप्यमाणं तु ॥३१॥
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लोकाकाश प्रमाण हैं । ""धर्माधर्मयोः कृत्स्ने" ये द्रव्य लोकाकाश में तिल में तेल की तरह व्याप्त हैं ऐसा समझना चाहिये, इसलिए इन दोनों द्रव्यों का आकार भी लोकाकाश के समान है और प्रदेश भी लोकाकाश प्रमाण असंख्यात हैं । प्राकाश सभी द्रव्यों को जगह देता । इसके लोकाकाश और प्रलोकाकाश ऐसे दो भेद हैं- पुरुषाकार लोकाकाश से परे सब ओर अनन्तानन्त अलोकाकाश ही है । लोकाकाश के बाहर और कोई द्रव्य नहीं है ।
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज इन द्रव्यों को जानकर ग्रात्म द्रव्य में स्थिर होना चाहिए ऐसा कहते हुए एक श्लोक कहते हैं - ]
( ४६ ) श्लोकार्थ - - यहां लोक में ( जी और पुद्गल को } गमन में निमित्त ( धर्म द्रव्य ) है और जो स्थिति में कारण है, जो अपर - अन्य द्रव्य अखिल द्रव्यों को स्थान देने में प्रवीण है इन सभी को द्रव्यरूप से सम्यक् प्रकार अवलोकन करके भव्यजीव सर्वदा अपने श्रात्म तत्त्व में प्रवेश करो ।
भावार्थ - टीकाकार कहते हैं कि इन द्रव्यों को द्रव्यरूप से जानकर अपने श्रात्म स्वरूप का अवलोकन करो।
[ अब सूत्रकार काल द्रव्य का लक्षण कहते हुए तीन गाथा सूत्र कहते हैं - ]
१. तत्वार्थ प्र. ५ सूत्र १३ ।
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