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जीव अधिकार
[ १५ मार्गदर्श शुस्तिमाणसाकरिता मोटात् सप्तमा भवति मयम् । क्रोधनस्य पुसस्तीव्रपरिणामो
शेषः । रागः प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, दानशीलोपवास गुरुजनवयावृत्त्यादिसमुद्भवः प्रशस्त
माः, स्त्रीराजचौरभक्तविकथालापाकर्णन कौतुहलपरिणामो ह्यप्रशस्तरागः । चातुर्वर्णश्रमणसंघवात्सल्यगतो मोहः प्रशस्त इतरोऽप्रशस्त एव । चिन्तनं धर्मशुक्लरूपं प्रशस्तमितरदप्रशस्तमेव । तिर्यमानवानां वयःकृतदेहविकार एव जरा । वातपित्तश्लेष्मणां
षम्यसंजातकलेवरविपीडैव रुजा । साविसनिधनमूर्तेन्द्रियविजातीयनरनारकादिविभावव्यन्जनपर्यायविनाश एव मृत्युरित्युक्तः । अशुभकर्मविपाकजनितशरीरायाससमुपजातप्रतिगंधसम्बन्धवासनावासितवाबिन्दुसंदोहः स्वेदः । अनिष्ट लाभः खेदः । सहजचतुर
वेदना भय और आकस्मिक भय के भेद से भय सात प्रकार का है । क्रोध स्वभावो जीव के तीव्र परिणाम को रोप कहते हैं । राग के प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे दो भेद हैं, दान, शोल, उपयास, गुरुजनों को वैयावृत्ति प्रादि में उत्पन्न होने वाला राग प्रशस्त राग है और स्त्री कथा, राज कथा, चौर कथा, भोजन कथा रूप विकथा के करने तथा सुनने का जो कौतुहल रूप परिणाम है वह अप्रशस्त राग है । चार प्रकार के श्रमण संघ में बात्सल्य में होने वाला मोह प्रशस्त भोह है और इससे भिन्न-गृह कुटुम्ब संबंधी मोह अप्रशस्त ही है । धर्म शुक्लरूप चितवन करना प्रशस्त चिंता है और इससे भिन्न आर्तरोदध्यान मंबंधी चितवन अप्रशस्त चिता ही है।
तिर्यंच और मनुष्यों के उम्र के निमिन से होने वाले शरीर में विकार ही बुढ़ापा है । बात, पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न हुई शरीर में पीड़ा हो रोग है, आदि और अंतसहित मूर्तिक इंद्रियां नथा विजातीय नर-नारकादि विभाव व्यंजन पर्याय का विनाश ही मृत्यु कहा गया है ! अशुभ कर्म के उदय से होने वाला जो शरीर में श्रम है उससे उत्पन्न होने वाली दुर्गध से संबंधित बासना से वासित जल बिन्दुओं के समूह को पसीना कहते हैं । अनिष्ट के लाभ से होने वाला खेद है। अखिल जनता के कान में अमृत वा भराते हुये के समान सहज चतुर कविता स सहज सुन्दर शरीर, कुल, बल और श्वयं के निमित्त से प्रात्मा में अहंकार को उत्पन्न कराने वाला मद कहलाता है। रुचिकर वस्तुओं में परमप्रीति होना ही रति है । परम समरसीभाव की भावना से रहित जीवों को कहीं पर पूर्व काल में नहीं देखा हुभा ऐसा कुछ अपूर्व देख लेने से विस्मय होता है । केवल शुभ कर्म से देव पर्याय
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