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जीव अधिकार
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युगपल्लोकालोकव्यापिनो । इति कार्यकारणरूपेण स्वभावदर्शनोपयोगः प्रोक्तः । विभावदर्शनोपयोगयुत्तरसूत्रस्थितस्वात् तव दृश्यत इति ।
( इंद्रवज्रा )
हरज्ञप्तिवृत्यात्मक मेकमेव चैतन्यसामान्यनिजात्मतत्वम् ।
मुक्तिस्पृहाणामयनं तदुच्चैरेसेन मार्गेण विना न मोक्षः ||२३||
निष्कर्ष यह निकला कि यहां पर भी दी दोहक सूत्र की टीका में प्राचार्य ने स्पष्ट रूप से कहा है कि दर्शनोपयोग का जो एक भेद मानस प्रदर्शन है वह आत्म स्वरूप को ग्रहण करने वाला है निजशुद्धात्मानुभूति के ध्यान में वह सहायक कारण होता है। उसी प्रकार यहां पर भी नियमसार की टीका में श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने 'दर्शनोपयोग के लक्षण में स्वरूप के श्रद्धानमात्र को ही कारणदृष्टि शब्द से कहा है अर्थात् कारणस्वभाव दर्शन रूप कहा है ।
[ग्रव टीकाकार श्री मुनिराज श्लोक कहते हैं - ]
( २३ ) श्लोकार्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप एक ही चैतन्यसामान्य अपना ग्रात्म तत्त्व है । मुक्ति की इच्छा करने वालों के लिये अतिशय रूप से वह मार्ग है क्योंकि इस मार्ग के बिना मोक्ष नहीं है अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है । प्रभेद रत्नत्रय में भी इन तीनों की ऐकाय परिणति होती है वही चैतन्यसामान्य निजात्म तत्त्व है उस अद्भुत रूप तत्त्व को प्राप्त किये बिना मोक्ष नहीं हो सकती है ।
१ – कुछ लोग दर्शनोपयोग में सम्यक्त्व के लेने से चौंक उठते हैं और
अन्धकार को असत्यमाथी एवं
अम कहने का भी यतिसाहस कर बैठते हैं किन्तु उन्हें इन अन्य ग्रंथों का तद्वत् अर्थ देखकर ग्रन्थकारों के प्रति श्रश्रद्धा नहीं करना चाहिये। ये सिद्धान्तग्रन्थ नहीं हैं प्राध्यात्मिक ग्रन्थ हैं। इनकी अपेक्षाओं को समझना चाहिये ।