________________
७८ ]
उक्तं च मार्गप्रकाशे -
तथा हि
नियमसार
( धनुष्टुभ् )
|
" वसुधान्त्यचतुःस्पषु चिन्त्यं स्पर्शन वरण गन्धो रसश्चैकः परमाणोः न चेतरे ।। "
( मालिनो )
अथ सति
परमाणो रेकवर्णादिभास्वन् निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः । इति निजहृदि मस्वा शुद्धमात्मानमेकम् परमसुखपदार्थो भावयेद्भव्यलोकः ||४१ ॥
संस्थान, भेद, तम छाया आतप और उद्योन ये सब पुद्गल की पर्यायें हैं ऐसा कहा है ।
मार्गप्रकाश ग्रन्थ में भी कहा है
श्लोकार्थ - "आठ प्रकार के स्पर्शो में अंतिम चार स्पर्शो के दो स्पर्श अर्थात् शोत- उष्ण में से कोई एक और स्निग्ध-रुक्ष में से कोई एक ऐसे दो स्पर्श, एक वर्ग, एक गंध और एक रस परमाणु में ये पांच गुण समझना चाहिये शेष अन्य गुण नहीं होते हैं ।"
[ अब टीकाकार श्री मुनिराज परमाणु के स्वरूप को समझकर क्या करना चाहिये, इस बात को बताते हुए एक श्लोक कहते हैं- I
( ४१ ) श्लोकार्थ - परमाणु में एक वर्णादि रूप भासमान अपने गुणों का समुदाय होने पर भी उसमें मेरे कार्य की सिद्धि नहीं है। इस प्रकार से अपने हृदय में समझकर परम सुखपद मोक्ष की इच्छुक भव्य जीव प्रपनी शुद्ध एक आत्मा को भावना करें 1