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प्रजीव अधिकार
( उपेन्द्रवज्रा) प्रचेतने पुद्गलकायकेऽस्मिन् सचेतने वा परमात्मतत्त्वे । न रोषभावो न च रामभावो भवेदियं शुखदशा यतीनाम् ॥४५॥
( ४५ ) श्लोकार्थ--पुद्गलकाय रूप इस अचेतन में अथवा परमात्म तत्त्व रूप सचेतन में न द्वेषभाव है न रागभाव है। यह शुद्ध दशा यतियों की होती है ।
विशेषार्थ--पुद्गलकाय स्प अचेतन में द्वग नहीं होवे और परमात्म तत्त्व रूप चेतन द्रव्य में राग नहीं होवे यह वीतराग शुद्ध दशा यतियों के ही हो सकती है। असंयत सम्यग्दृष्टि या देशव्रती श्रावकों में तो असम्भव हो है, किन्तु छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों को भी परमात्म तत्त्व स्वरूप अरिहंत सिद्ध परमेष्ठियों में अनुराग पाया जाता है। छठे गुणस्थान के योग्य वंदना, स्तुति आदि क्रियानों में वे मुनि प्रवृत्त होते हैं । श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी स्वयं प्रवचनसार में मुनियों की सराग चर्या का विधान किया है । यथा
साधु अवस्था में यदि अर्हतादि के प्रति भक्ति तथा प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है तो वह शुभोपयोगी चर्या है । साधु श्रमणों के प्रति वंदन, नमस्कार पूर्वक खड़े होना, पीछे चलना, विनय सहित प्रवृत्ति करना, उनको थकान दूर करना आदि करते हैं तो वह स राग चर्या में निषिद्ध नहीं है, प्रत्युत सम्यग्दर्शन ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का संग्रह, उनका पोषण और जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश ये सब सरागी मुनियों की चर्या है ।
१. मरिहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज दि जाँद सामपणे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥२४६।।
वंदणणमंसगेहि अन्मुट्ठाणाणुगमण पडिवित्ती । समणेसु समावणमोण गिदिदा राय चरियम्हि ।।२४०।। दसणणाणुबदेसो सिस्सग्गहण च पोसण तेसिं । चरिम्हि सरागाणां जिरिंणध पूजोवदेसो य ||२४८।।
-प्रवचनसार