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नियमसार गमपरिणमित्तं धम्ममधम्म ठिदि जीवपुग्गलारणं च । अवगहणं प्रायासं, जीवादीसव्वदव्वाणं ॥३०॥
गमननिमिचो धर्मोऽधर्म:स्थितेः जीवपुद्गलानां च । अवगाहनस्याकाशं जीवादिसर्वद्रयाणाम् ॥३०॥
जो जीव और पुदगलों के चलने में कारण । वो धर्म द्रव्य भी प्रधम रुकने में कारण ।। जीवादि सर्व द्रव्य को प्रकाश जो देता ।
प्राकाश द्रव्य है वही सबको समा लेता 11३०।। धर्माधर्माकाशानां संक्षेपोक्तिरियम् । अयं धर्मास्तिकायः स्वयं गतिक्रियारहितः दोधिकोदकवत् । स्वभावगतिक्रियापरिणतस्पायोगिनः पञ्चह्रस्वाक्षरोच्चारणमात्रस्थितस्थ भगवतः सिद्धनामधेययोग्यस्य षट्कापक्रमविमुक्तस्य मुक्तिवामलोचतालोचनगोचरस्य
[ अब सूत्रकार धर्म, अधर्म और प्रकाश द्रव्य का वर्णन करते हुए कहते हैं :-]
गाथा ३०
अन्वयार्थ- [ जीवपुद्गलानां गमननिमिनः ] जीव और पुद्गलों के गमन का निमित्त है [ धर्मः ] धर्मद्रव्य [च ] और [ स्थितेः अधर्मः ] स्थिति का निमित्त अधर्मद्रव्य है, [ जीवादिसर्वव्यारवां ] जीवादि सभी द्रव्यों के [अवगाहनस्य प्राकाशं] अवकाश दान देने का निमित्त आकाश द्रव्य है ।
टोका--यह धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों का संक्षिप्त कथन है ।
यह धर्मास्तिकाय बावड़ी के जल सदृश स्वयं गतिक्रिया से रहित है । स्वाभाविक गतिक्रिया रूप से परिणत जो प्रयोग केवली भगवान् हैं यह धर्म द्रव्य उनकी स्वाभाविक गतिक्रिया में हेतु है । वे प्रयोग केवली भगवान् कैसे हैं ? पांच ह्रस्व अक्षर अ इ उ ऋ लु इनके उच्चारण मात्र काल की जिनको स्थिति है जो 'सिद्ध' इस नाम के योग्य हैं छह प्रकार के अपक्रम से रहित हैं अर्थात् पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण, ऊर्ध्व और अधः ये छह गतियां संसारी