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नियमसार
द्रन्यायिकेन जीवा व्यतिरिक्ता पूर्वभणितपर्यायात् । पर्यापन येन जीवाः संयुक्ता भवंति द्वाभ्याम् ॥१६॥
इन पूर्व में कही सभी पर्याय से पृथक् । द्रव्याथिक नय से हैं ओव मानिये सम्यक् ।। पर्यायनय से किंतु सभी जीव को जानो।
दोनों प्रकार पर्ययों से युक्त हो मानो ।।१९।। इह हि नययस्य सफलत्वमुक्तम् । द्वौ हि नमो भगवदहत्परमेश्वरेण प्रोक्तो द्रव्याथिकः पर्यायाथिकाचेति । द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिकः । पर्याय एवार्थ:
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भावार्थ-टीकाकार ने द्वाभ्यां का अर्थ ऐसा किया है कि इस तरह जीव द्रव्याथिक और पर्यायाधिक दोनों नयों से सहित होते हैं। द्रव्यार्थिक नय से जीव सभी पर्यायों से रहित हैं इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्याथिक नय द्रव्य को ही विषय करता है पर्याय को देखता ही नहीं है जैसे इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ही ग्रहण करती हैं अन्य के विषय को नहीं ग्रहण कर सकती हैं, चक्षु घने का काम नहीं करती हैं उसी प्रकार से द्रव्याथिक नय द्रव्य को ही देखता है इसलिये इस नय की अपेक्षा से द्रव्य में पर्यायें विद्यमान होते हुये भी गौण हो जाती हैं और पर्यायाथिक नय पर्यायों को ही देखता है द्रव्य को नहीं देखता है। ये दोनों परस्पर सापेक्ष रहते हैं तभी वस्तु का सही बोध होता है और निरपेक्ष हो जाते हैं तभो सही बोध नहीं होने से मिथ्यात्व हो जाता है।
टोका-यहां पर निश्चित रूप से दोनों नयों को सफलता को कहा है। , भगवान अर्हन्त परमेश्वर ने निश्चित रूप से दो नय कहे हैं (१) द्रव्याधिक और (२) पर्यायाथिक । द्रव्य ही अर्थ-प्रयोजन है इसका इसलिये यह द्रव्याथिक है और पर्याय ही है अर्थ-प्रयोजन इसका नतः यह पर्यायाथिक है । निश्चित ही एक नय को आश्रय करने वाला उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है, किन्तु दोनों नयों के प्राश्रित हुमा उपदेश ही ग्राह्य है।
___सत्ताग्राहक-द्रव्य के अस्तित्व को ग्रहण करने वाले ऐसे शुद्ध द्रव्याथिक नय के बल से मुक्त-सिद्ध और अमुक्त-संसारी सभी जीव समूह पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायों से
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