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जीव अधिकार तथा चोक्त श्रीमबमृतचन्द्रसूरिमि :--
( मालिनी) "उभयनविरोधध्वंसिनि स्यात्पांके जिनवचसि रमते ये स्वयं बांतमोहाः। सपदि समयसारं ते पर ज्योतिरुच्च
रनवमनयपकासमीक्षनः एव ।।" • - - - - - - - - - - - है। इस प्रकार से सभी जीवों को भी शुद्ध-अशुद्ध उभयरूप सिद्ध कर दिया है । सो अपेक्षाकृत कथन में कोई बाधा नहीं आती है 1
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उसी प्रकार से अमृतचन्द्र मुरि ने भी कहा है
श्लोकार्य-'"स्वयं बातमोह-जिन्होंने दर्शनमोहनीय का वमन कर दिया है ऐसे जो जीव उभयनय के विरोध को ध्वंस करने वाले और स्यात्पद से चिन्हित ऐसे जिनवचन में प्रीति करते हैं वे जीव शीघ्र ही अनव-नवीनता रहित अनादि स्वरूप
और कुनयों के पक्ष से खडित नहीं होने वाले ऐसे समयसार स्वरूप परं ज्योति को अतिशय रूप से देख ही लेते हैं-प्राप्त हो कर लेते हैं।"
भावार्थ-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक अथवा निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों का विषय परस्पर विरोधी हो रहता है. किन्तु जो नय परस्पर सापेक्ष रहते हैं वे ही सुनय कहलाते हैं वे ही नय स्यात्पद से चिन्हित रहते हैं और जिनेन्द्र भगवान् के वचन स्वरूप माने जाते हैं। तथा जब वे परस्पर निरपेक्ष रहते हैं तब कुनय कहलाते हैं । यहां यह भी अर्थ है कि जो स्वयं दर्शन मोहनीय से रहित सम्यग्दृष्टि जीव जिनवचन में रत होते हैं वे शीघ्र हो । चारित्र मोहनीय से रहते हुये पूर्वोक्त विशेषणों से सहित समयसार स्वरूप केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं ।
[ अब टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारीदेव उभयनय के अवलम्बन की सफलता को बतलाते हुये तथा भव्य जीवों को परमत से निवृत्त करते हुये श्लोक कहते हैं । ]
१. रामयसार कलश ४॥