________________
-
-
६८)
मियमसार विभावपुद्गलस्वरूपास्वानमेतत् । प्रतिस्थूलस्यूसा हि ते खलु पुद्गलाः सुमेरुकुम्भिनीप्रमृतयः । घृततलतमाक्षीरजलप्रमृतिसमस्तद्रध्याणि हि स्थूलपुद्गलाश्च । छायाप्तपतमःप्रमृतयः स्थूलसूक्ष्मपुद्गलाः । स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियारणां विषयाः सूक्ष्मस्थलपुद्गलाः शब्बस्पारसगन्धरः । शुभाशुभपरिणामद्वारेणागच्छतां शुभाशुभकर्मणां योग्याः सूक्ष्मपुद्गलाः । एतेषां विपरीताः सूक्ष्मसूक्ष्मपुद्गलाः कर्मणामप्रायोग्या इत्यर्थः। अयं विभावपुद्गलक्रमः । तथा चोक्त पंचास्तिकायसमये--
"पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसयकम्मपाओग्गा । कम्माप्तीदा एवं छम्मेया पोग्गला होति ।।" --- .
----- - -- - टोका-यह विभाव पुद्गल के स्वरूप का कथन है ।
वे सुमेरु, पथ्वो आदि ( धन पदार्थ ) निश्चित रूप से अति स्थल स्थल पुद्गल हैं । घी तेल, मट्ठा, दूध, जल आदि समस्त द्रव्य (द्रव पदार्थ ) स्थूल पद्गल हैं । छाया, श्रातप, अंधकार आदि स्थूल सूक्ष्म पुद्गल हैं | स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियों के जो विषय स्पर्श, रस, गंध और शब्द हैं चे सूक्ष्मस्थूल पद्गल हैं। शुभ-अशुभ परिणाम के द्वारा आते हुये शुभ-अशुभ कर्मों के योग्य सूक्ष्म पुद्गल हैं और इनसे विपरीत कर्मों के अयोग्य पुद्गल सूक्ष्म सूक्ष्म पुद्गल हैं यह अर्थ हुआ । यह विभाव पुद्गल का क्रम है ।
उसी प्रकार से पंचास्ति काय आगम में कहा है---
मायार्थ-"पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषय, कर्म, के योग्य और कर्मातीत इस प्रकार से पुद्गलों के छह भेद होते हैं"
मार्गप्रकाश ग्रन्थ में भी कहा है--
लोकार्य-"स्थूल स्थूला उसके अनन्त र स्थूल, स्थूल सूक्ष्म इसके अनन्तर सूक्ष्म स्थूल उसके बाद सूक्ष्म और उससे परे सूक्ष्म सूक्ष्म ऐसे छह प्रकार के पुद्गल होते हैं।"