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नियममार
( अनुष्टुभ ) स्कन्धेस्तै : पदप्रकारः किं चतुभिरणुभिर्ममः ।
प्रास्मानमभयं शुद्ध भावमामि मुहुर्मुहुः ॥३६॥ अत्तादि अत्तमज्झं, अत्तत्तं णेव इंदिए गेझं । अविभागी जं दव्वं, परमाणू तं वियागाहि ॥२६॥
आत्माद्यात्ममध्यमात्मान्तं नेवेन्द्रियाह्यम् । अविभागि यद् द्रव्यं परमाणु तद् विजानीहि ।।२६॥ स्वयमेव जो है प्रादि व स्वयमेव मध्य है। स्वयमेव अत आप ही इन्द्रिय अग्राह्य है ।। जिसका विभाग हो न सके उसी द्रव्य को। मासे सदा तुम शास्त्र से समझो ।।२६।।
- - [ प्रब टीकाकार श्री मुनिराज इन पुद्गलों को जानकर क्या करना चाहिये इस बात को बतलाते हुये फूलोक कहते हैं-]
श्लोकार्थ-उन छह प्रकार के स्कंधों से और चार प्रकार के अणयों से मेरा क्या प्रयोजन है ? मैं तो अक्षय और शुद्ध आत्मा की पुन: पुन: भावना करता हूँ ।
गाया-२६ अन्वयार्थ-[ आत्मादि ] स्वयं जिसका स्वरूप ही आदि रूप है [ प्रात्ममध्यं ] स्वयं जिसका स्वरूप ही मध्य रूप है [ आत्मान्तं ] स्वयं जिसका स्वरूप ही अंतरूप है [ इंद्रियः ग्राह्य न एव ] जो इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य नहीं है [ यद द्रव्यं ] ऐसा जो द्रव्य [ अविभागि ] विभाग रहित है [ तत् परमाणु विजानीहि ] तुम उसको परमाणु जानो।
भावार्थ-जो स्वयं ही आदि, मध्य और अंतरूप है अर्थात् जिसमें प्रादि, मध्य और अंत को व्यवस्था नहीं हो सकती है ऐसा जो इन्द्रियों के अगोचर पुद्गल
१. वियागीहि (क) पाटान्तर ।