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नियमसार
संयुक्ताः सर्वे जोवा इति सूत्रार्थो व्यर्थः । निगमो विकल्पः, तत्र भयो नंगमः । स च नैगमन पस्तावत् त्रिविधः, नूतनैगमः वर्तमाननैगमः भाविनंगमश्चेति । यत्र नूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यंजनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति । पूर्वकाले से भगवन्तः संसारिण इति व्यवहारात् । किं बहुना, सर्वे जीवा नयद्रयबलेन शुद्धाशुद्धा इत्यर्थः ।
पर्याय (२) व्यंजन पर्याय । श्रर्थ पर्याय दो प्रकार की हैं- स्वभाव अर्थ पर्याय और विभाव अर्थ पर्याय | स्वभाव अर्थ पर्याय सभी द्रव्यों में होती है किन्तु विभाव अर्थ पर्याय जीव और गुद्गल इन दो में ही होती है । अगुरुलघु गुण का परिणमन स्वभाव अर्थ पर्यायें हैं। इनके बारह भेद हैं, छह वृद्धिरूप और यह हानि रूप जो कि श्रनन्त भाग वृद्धि आदि हैं ।
द्वप, पुण्य
विभाव अर्थ पर्याय के भी ६ भेद हैं-- 'मिथ्यात्व, कपाय, राग, विभावरूप हैं । पुद्गल में भी स्वभाव एवं 'घणुकादि स्कंधों में वर्णांतरादि
और पापरूप जो अध्यवसाय - परिणाम हैं वे पर्याय वही पदगुण हानि वृद्धि रूप हैं परिणमन रूप है |
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कांजन पर्याय के दो भेद हैं- स्वभाव व्यंजन पर्याय और विभाव व्यंजन पर्याय | स्वभाव और विभाव के भी द्रव्य और गुण की अपेक्षा दो-दो भेद है । जैसेस्वभाव द्रव्य - व्यंजन पर्याय स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय | विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय और विभाव गुण व्यंजन पर्याय । जीव में घटाते हैं - विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय के चार भेद हैं नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवपर्याय रूप । अथवा चौरासी लाख योनि के भेद रूप भी विभावर्याय हैं । विभावगुण व्यंजन पर्याय जीव के मति ज्ञानादि है ।
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स्वभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय चरम शरीर से किंचित् न्यून सिद्ध पर्याय है । स्वभाव गुण व्यंजन पर्यायें जीव के अनन्त चतुष्टयादि रूप हैं ।
यहां पर टीकाकार श्री पद्मप्रभमलघारीदेव ने भूत नंगमनय की अपेक्षा सिद्धों को अशुद्ध, संसारी एवं शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा संसारी जीवों को भी शुद्ध कहा
१. पंचास्तिकाय गाथा १६ की टीका ||
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