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जीव अधिकार
[ ५६ प्रयोजनमस्येति पर्यायाथिकः । न खलु एकनयायत्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयायत्तोपदेशः । सवाग्राहकशुद्धद्रव्याथिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यंजनपर्यायेम्पः सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजोवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव । कुतः, "सन्वे सुद्धा हु सुद्धगया" इति बचनात् । विभावव्यंजनपर्यायाथिकनयबलेन ते सर्वे जीवास्संयुक्ता भवन्ति । किं च सिद्धानामर्थपर्यायैः सह परिणतिः, न पुनव्यंजनपर्यायः सहपरिणतिरिति । कुतः, सदा निरंजनत्वात् । सिद्धानां सदा निरंजनत्वेसति तहिंद्रध्यापिकपर्यायाथिकनयाभ्याम् द्वाभ्यास
सर्वथा भिन्न हो हैं। कैसे भिन्न हैं ? 'सभी जीव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं ऐसा वचन है। विभाव व्यंजन पर्यायाथिक नय के बल से वे सभी जीव पूर्वोक्त व्यंजन पर्यायों से संयुक्त होते हैं । विशेष बात यह है कि सिद्धों की अर्थ पर्यायों के साथ परिणति है, किन्तु व्यंजन पर्यायों के साथ नहीं है। क्यों नहीं है ? क्योंकि वे सदा निरंजन रूप हैं।
प्रश्न--सिद्धों के सदा निरंजनरूप होने पर तो सभी जीव द्रव्याथिक और पर्यायाथिक इन दोनों नयों से संयुक्त है इसप्रकार का सूत्रार्थ व्यर्थ है।
उत्तर-ऐसा नहीं कहना । निगम-विकल्प, उम निगम में जो होता है वह नंगम है और वह नंगम नय तीन प्रकार का है-भूतनैगमनय, वर्तमान नैगमनय और भावी नंगमनय । यहां भूत नंगमनय की अपेक्षा से भगवान् सिद्धों में भी व्यंजन पर्याय और अशुद्धपना सम्भव है 1 पूर्वकाल में वे भगवान् संसारी थे इस प्रकार का व्यवहार होता है । अधिक कहने से क्या ? सभी जीव दोनों नयों के बल से शुद्ध तथा अशुद्ध दोनों प्रकार के होते हैं यहां ऐसा अर्थ हुआ है ।
विशेषार्थ-यहां पर टीकाकार ने भूत नंगमनय की अपेक्षा से सिद्धों में व्यंजन पर्याय मानी हैं किन्तु अन्यत्र-पालाप पद्धति अन्य में सिद्धों की सिद्धत्व पर्याय को ही व्यंजन पर्याय कहा है। यथा-'स्त्र भाव द्रव्य व्यांजन पर्याय चरम शरीर से किंचित् न्यून सिद्ध पर्याय है।
यहां पर स्वभाव और विभाव पर्यायों का किंचित् स्पष्टीकरण करते हैं--
गुणों के विकार को पर्याय कहते हैं। वे पर्याण दो प्रकार की हैं (१) अर्थ 1. "सत्वे सुद्धा हु सुद्धण्या" द्रव्यसं. गाथा १३ ॥ २. पानाप पद्धति पू. ५॥